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अंधी मोहब्बत

हिजाब इम्तियाज़ अली

अंधी मोहब्बत

हिजाब इम्तियाज़ अली

MORE BYहिजाब इम्तियाज़ अली

    स्टोरीलाइन

    किसी दुर्घटना में अंधी हुई एक लड़की की कहानी है। जो डॉक्टर उसका इलाज कर रहा है, लड़की को उस डाक्टर से मोहब्बत हो जाती है। उन दोनों की शादी भी हो जाती है। लड़की के आँखों के ऑपरेशान के बाद जब वह अपने शौहर को देखती है तो उसे देखकर वह इतनी हैरान होती है कि वह दिल ही दिल में दुआ करती है कि काश, उसकी आँखें ठीक नहीं हुई होतीं। लड़की की यह हालत देखकर उसका डाक्टर शौहर उसे अपने अस्सिटेंट के हवाले कर के उसकी ज़िंदगी से चला जाता है।


    (जब मोहब्बत के अंधे देवता क्यूपिड की आँखें पैदा होती हैं तो क्या होता है?)

    (1)
    हादसा
    पाच तोन से शहर शिवराक जाते हुए हमें कार का एक ऐसा ख़ौफ़नाक हादसा पेश आया जिसने मेरी किताब-ए-ज़िंदगी में एक अजीब-ओ-ग़रीब बाब का इज़ाफ़ा कर दिया।

    मोटर कार की पिछली सीटें सामान से लदी हुई थीं। चचा जाफ़र ने सामान का एक जुज़्व बन कर पिछली सीट पर ढोए जाने की बजाय बेहतर समझा कि ड्राइवर को साथ न लें और उसकी सीट पर ख़ुद रौनक़ अफ़रोज़ हो जाएं। चुनाँचे वो अगली सीट पर बैठे कार चला रहे थे और मैं उनके पहलू में दूरबीन लिए इधर-उधर के मनाज़िर देख रही और रास्ते का ज़ाइज़ा ले रही थी। जहाँ कहीं पुर ख़तर रास्ता या कोई अचानक मोड़ नज़र आता दिखाई देता, मैं उन्हें पहले से आगाह कर देती। एशियाई सुबह की ख़ुशगवार ख़ुनक हवा, पहाड़ी रास्तों की ना-हमवार घाटियाँ, कहीं उबलते हुए चश्मे, कहीं बल खाती हुई नदियाँ, कहीं कुहसार की कासनी चोटियाँ, कहीं सर बुलंद सनोबर के मख़रूती सिरे, इन तमाम चीज़ों ने हमें बेहद महज़ूज़ कर रखा था।

    दफ़्अतन मैंने दूरबीन से देखते हुए कहा, चचा, चचा! एक और पुर ख़तर मोड़ आ गया। रफ़्तार ज़रा धीमी कर लीजिए। उफ़, ये सियाह ग़ार! रास्ता भी बहुत ना-हमवार है। चचा जान के मुँह में मोटा सा सिगार था। गोल-गोल आवाज़ में बोले, तरद्दुद न करो। बहुत आहिस्ता चला तो ताख़ीर का अंदेशा है। हमें शाम से पहले शिवराक पहुँचना है। वहाँ वकील मेरा मुंतज़िर होगा।

    उनका जुमला ख़त्म न होने पाया था कि आँखों ने वो देखा और हवास ने वो महसूस किया कि अलअमान उल हफ़ीज़! कार अचानक एक बड़े पत्थर से टकराई और पीछे ढलवाँ सड़क पर फिसलने लगी फिर उसके बाद क्या हुआ इसका मुझे पता नहीं। मेरे हवास जैसे किसी अथाह तारीकी में डूब रहे थे। कार शायद किसी खड में जा गिरी हो, शायद किसी पहाड़ से टकराई हो, मैं बेहोश हो चुकी थी।

    (2)
    तारीकी
    पाँच दिन कैसे गुज़रे, मुझे इसका मुतलक़ एहसास नहीं। पेशानी पर और सर की पुश्त पर ऐसी चोटें आई थीं जिन्होंने मुझे बेसुद्ध कर रखा था। इसपर शदीद बुख़ार ने हवास मुख़्तल कर दिए थे।

    पांचवें दिन जब मुझे कुछ होश आया और मैंने अपनी पलकें उठाने की एक नातवां कोशिश की तो देखा कमरे में एक गहरी तारीकी फैली हुई है। ऐसी बे रूह तारीकी जिसे मेरी आँखों ने पहले कभी महसूस न किया था। अगरचे मेरा सर पट्टियों में जकड़ा हुआ था मगर मैंने उसे आहिस्ते से घुमाकर दरीचों को देखने की कोशिश की मगर बहुत जल्द मुझे महसूस हुआ कि कमरे में न कोई दरीचा है न रौशनी का कोई दूसरा एहतिमाम। अचानक सर्द और तारीक क़ब्र की याद ने मेरी रूह में एक नश्तर घोंप दिया। मेरे दिल ने कहा ये क़ब्र है। मेरे रोंगटे खड़े हो गए और मैं चीख़ पड़ी, चचा! चचा जाफ़र! चचा जाफ़र!

    पाँच दिन के बाद यकलख़्त मेरी आवाज़ सुन कर नर्स दौड़ पड़ी। ख़ातून! क्या बात है, क्या बात है! तुम कैसी हो? मैं नर्स हूँ।

    नर्स, मैंने घबरा कर रोते हुए कहा, ख़ुदा के लिए कमरे में रौशनी करो।

    रौशनी?

    हाँ। मैंने कहा, यहाँ कोई रौशनी क्यों नहीं है?

    नर्स ने क़रीब आकर मेरी नब्ज़ पर अपनी उंगलियाँ रखीं फिर बोली, दिन का वक़्त है ख़ातून। मैं घबराकर उठना चाहती थी मगरी मेरी गर्दन अकड़ी हुई थी। मैंने बे बसी से तकिये पर गिर पड़ी और रोने लगी। नर्स मुझे हर तरफ़ अंधेरा ही अंधेरा मालूम होता है। मुझे कुछ दिखाई नहीं देता। मुझे तुम भी दिखाई नहीं देतीं। चचा कहाँ हैं? हाय चचा।

    मैं अभी सर जाफ़र को बुलाती हूँ। नर्स ने कुछ घबराए हुए लहजे में कहा और कमरे से बाहर भाग गई। मैं सिसकियाँ लेती हुई बिस्तर पर पड़ी रही। बेटी! बेटी ज़ेबा! कैसी हो? चचा की आवाज़ आई।

    चचा-चचा आप कहाँ हैं? आप मुझे दिखाई नहीं देते?

    नक़ाहत का सबब होगा बेटी। चुपचाप पड़ी रहो। तुम पाँच दिन बेहोश रही हो। ये कहते हुए आकर मुझपर झुक गए और मेरी पेशानी चूम ली। मैं बेइख़्तियार रो पड़ी। चचा मेरा दिल बैठा जाता है। मुझे कुछ नहीं सुझाई देता। क्या आप लोग मुझसे हँसी कर रहे हैं? क्या बाहर आफ़ताब चमक रहा है? हाय, मेरी आँखें! मेरी आँखें क्या हुईं? वो खुली हैं या बंद? ये क्या हो गया?

    मालूम होता था चचा जाफ़र को मेरी बातों पर हज़यान का शुबहा हो रहा है। बार-बार कहते, नर्स! टेम्परेचर लेना। कहीं बुख़ार ज़्यादा तेज़ न हो गया हो।

    जनाब मैंने आधे घंटे पहले हरारत देखी थी, नॉर्मल थी।

    तो नर्स, फ़ौरन डॉक्टर को टेलीफ़ोन करो।

    दस मिनट बाद डॉक्टर पहुँच गया। उसने मुझसे चंद सवाल किए। फिर धीमी आवाज़ में चचा से कुछ कहा और उन्हें कमरे से बाहर ले गया। मैंने घबरा कर नर्स से पूछा, नर्स! डॉक्टर ने क्या कहा है? क्या मेरी बसारत जाती रही? नर्स ने कुछ बताना शायद मुनासिब न जाना, सिर्फ़ इतना कहा, अभी तो कुछ नहीं कहा, कोशिश कीजिए कि नींद आ जाए। ये कह कर वो मेरे तकिये ठीक करने लगी। मैं सिसकियाँ लेती हुई एक जुनून अफ़्ज़ा अँधेरे में चुपचाप पड़ी रही।

    (3)
    इलाज की तजवीज़
    मुझे कुछ पता न चला कि कितना वक़्त गुज़र गया। आध-आध घंटे बाद मैं नर्स से पूछ लिया करती थी। नर्स अब क्या बज गया? शाम को चचा जाफ़र चुपचाप मेरे कमरे में दाख़िल हुए। मैंने उनके क़दमों की आहट सुनी। वो आहिस्ता से मेरे क़रीब खड़े हो गये। मैं मुंतज़िर थी कि कोई बात करेंगे मगर उन्होंने कोई बात न की। वो शायद मेरी आँखों को ग़ौर से देख रहे थे। आख़िर घबरा कर मैंने कहा, चचा?

    हाँ बेटी ज़ेबा।

    आप चुप क्यों हैं? मेरा जी घबरा रहा है। मेरी आँखों को क्या हो गया चचा जान? क्या मैं अंधी हो गई हूँ? मेरे मुँह से एक आह निकली। चचा ज़ब्त करके बोले, नहीं बेटी, ये आरज़ी असर है। माबूद ने चाहा तो डेढ़ दो हफ़्तों में तुम बिल्कुल ठीक हो जाओगी।

    मैंने महसूस किया कि उनकी आवाज़ में एक दिल दोज़ दर्द पिन्हाँ है। मैं चीख़ पड़ी, डेढ़ दो हफ़्ते! इतनी मुद्दत इस अँधेरे में रहूँगी? हाय, अब क्या होगा? चचा बोले, बेटी इस तरह रोया नहीं करते। मैंने आज मशहूर डॉक्टरों से मिल कर मशवरा किया है। उन सबकी यही राय है कि डॉक्टर शीदी मशहूर माहिर-ए-चश्म हैं। उन्होंने बाज़ पैदाइशी नाबीनाओं तक को बसारत बख़्श दी है। वो शिवराक से तीन सौ मील के फ़ासले पर रहते हैं और इतने मसरूफ़ आदमी हैं कि शायद ही कहीं बाहर जाते हैं।

    तो फिर वो यहाँ क्योंकर आएंगे चचा?

    न आए तो हमें इनके वहाँ जाना पड़ेगा।

    मेरा दिल धक से रह गया, हाय! तो यूँ कहिए। मुझे अंधों के हॉस्पिटल में रहना होगा। मैं अंधी हो गई। गोया ज़िंदगी की तारीकी में इधर उधर भटका करूँगी! कोई मेरा रफ़ीक़ न होगा। मैंने अंधों के कई अफ़साने पढ़े थे। उनकी नामुराद ज़िंदगी की बे रंग यकसानी से बख़ूबी वाक़िफ़ थी। अब यही कैफ़ियत मेरी होती नज़र आ रही थी। न मैं किताबें पढ़ सकूँगी, न सुबह और शाम का हुस्न देख सकूँगी। मेरे दिल पर चोट सी लगी और मैंने अपना सर दूसरी तरफ़ फेर लिया।

    बेटी रो रही हो?

    नहीं चचा जान। मैंने ज़ब्त करके कहा।

    फिर ऐसी क्यों? उन्होंने मग़्मूम लहजे में पूछा।

    कुछ नहीं। थक गई हूँ।

    बेटी अफ़सुरदा न हो। इनशाअल्लाह डॉक्टर शीदी का जवाब आते ही इलाज शुरू हो जाएगा या तो वो यहाँ आएंगे या मैं तुम्हें वहाँ ले जाऊंगा।

    अच्छा चचा जान। मैंने अपने ज़ख़्मी जज़्बात को चचा से पोशीदा रखने की कोशिश की। चचा जाफ़र कमरे से बाहर चले गए और मैं घबरा कर रोने लगी। मेरे लिए अब दुनिया में, इस वसीअ और रौशन दुनिया में कुछ भी न रहा था। तारीकी! सिर्फ़ भाएं करती हुई तारीकी।

    शायद सामने का दरीचा खुला हुआ था। उसमें ठंडी निकहत बेज़ हवा के झोंके कमरे में आ रहे थे। रात की चिड़ियाँ बग़ीचे में सुबुक दिली से सीटियाँ बजा रही थीं मगर नहीं... न रंगीन फूलों को देख सकती थी जिनसे मुझे मोहब्बत थी, न ख़ुश गुलू परिंदों को जिनसे मुझे इश्क़ था। आह तारीक ज़िंदगी!

    (4)
    मुआयना
    डॉक्टर शीदी का जवाब आगया कि वो यहाँ नहीं आ सकते। अलबत्ता हमको वहाँ आजाने के लिए लिखा था। उसी शाम चचा और मैं और बड़ी बूढ़ी नर्स कोह फ़िरोज़ रवाना हो गए। जूंही हम वहाँ पहुँचे डॉक्टर शीदी के प्राइवेट सक्रेटरी ने हमें एक बड़े हॉल में बिठा दिया। थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खुला। एक निहायत शीरीं मर्दाना आवाज़ आई। तस्लीम सर जाफ़र! चचा की आवाज़ आई, तस्लीम, ये मेरी भाँजी और आपकी मरीज़ा हैं।

    डॉक्टर ने मेरी तरफ़ देखा होगा। ऐसा मालूम होता था वो मेरे क़रीब ही एक कुर्सी पर बैठ गया। हल्की-हल्की ख़ुशबू कमरे में फैली हुई थी। चचा हादसे की तफ़सील बयान कर रहे थे। मैं चुपचाप एक कोच पर बैठी पागलों की तरह एक बेबसी के आलम में सर इधर उधर फेर रही थी। मेरे लिए उस नये मक़ाम में सिवाए नई आवाज़ों और नई ख़ुशबुओं के और कुछ न था। अपनी महरूमी और नामुरादी का दर्द, दिल में लिये उकताई हुई बैठी थी।

    दफ़्अतन चचा की आवाज़ आई, बेटी ज़ेबा! डॉक्टर शीदी तुम्हारी आँखों का मुआयना करना चाहते हैं। उनके साथ चली जाओ। मैं चुपचाप उठ खड़ी हुई। इज़ाज़त दीजिए कि मैं आपको सहारा दे कर ले चलूँ। डॉक्टर शीदी ने कहा। उसकी आवाज़ ग़ैर मामूली दिलफ़रेब और सुरीली थी। मैं चुपचाप डॉक्टर के सहारे जिधर वो ले गया चली गई। मुझे सिर्फ़ इतना मालूम हुआ कि एक दरवाज़ा उसने खोला और हम दोनों उसमें दाख़िल हो गए।

    डॉक्टर ने मुझे एक कुर्सी पर बिठा दिया, ख़ातून, मैं आपकी आँखों पर शुआएं डाल कर देखना चाहता हूँ कि आप एक हल्की सुर्ख़ सी रौशनी महसूस करती हैं या नहीं। ये कहते हुए वो मेरी कुर्सी की पुश्त से लग कर खड़ा हो गया और झुक कर मेरा सर कुर्सी की पुश्त पर रख कर पेशानी के बाल हटा दिए।

    मैं अपनी आँखें बंद कर लूँ?

    जी हाँ, अगर आप कोई रौशनी महसूस करें तो मुझे बता दीजिये।

    लेकिन डॉक्टर! बेसाख़्ता मेरी ज़बान से निकला, अगर मैंने कोई रौशनी महसूस न की तो क्या होगा? क्या हमें हमेशा के लिए अंधी? मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े। रहम दिल डॉक्टर मुतास्सिर हो गया। उसने मेरी तस्कीन के लिए मेरी गर्म पेशानी पर अपना शफ़क़त भरा हाथ रख दिया। बोला, बानो! अगर ख़ुदा को यही मंज़ूर है कि आपकी बसारत आपको वापस न मिले तो मजबूरी लेकिन आँख रखते हुए भी ज़िंदगी को तारीक बना लेना और बग़ैर आँखों के भी ज़िंदगी को रौशन रखना, इंसान के अपने हाथ में होता है।

    उन फ़लसफ़ियाना बातों पर ग़ौर करने की मुझमें हिम्मत नहीं थी। मैं बेबसी के आलम में रो पड़ी। मगर डॉक्टर बग़ैर आँखों के सारी ज़िंदगी कैसे कटेगी? मैं कोई किताब नहीं पढ़ सकती। कोई ख़ुशनुमा मंज़र नहीं देख सकती। अब क्या होगा डॉक्टर?

    डॉक्टर ने मेरे सर पर आहिस्ता से हाथ फेरते हुए कहा, ख़ातून ख़ौफ़ न कीजिये। मैं पूरी कोशिश से आपका इलाज करूंगा लेकिन अगर क़ुदरत को यही मंज़ूर हुआ कि आप अपनी ज़िंदगी तारीकी में काटें तो उसका इंतज़ाम यूँ भी हो सकता है कि आप की क़ुव्वत सामिआ के लिए दिलचस्पियाँ मुहैया की जाएं। आप हसीन चीज़ों को देख न सकेंगी मगर ख़ूबसूरत अलफ़ाज़ सुन सकेंगी। हसीन राग आपका दिल बहलाएंगे।

    डॉक्टर ने आहिस्ते से मेरा सर कुर्सी की पुश्त वाली कुशन से लगा दिया और मुझसे कहा कि उसकी तरफ़ देखूँ। अपने असिस्टेंट की इमदाद से जो बहुत ख़ामोश नौजवान मालूम होता था वो देर तक मेरी आँखों का मुआयना करता और मुझसे तरह-तरह के सवाल पूछता रहा। आख़िर कुछ देर बाद इतमीनान बख़्श लहजे में बोला, ख़ातून ज़ेबा! मेरा ख़्याल है कि मायूस होने की कोई वजह नहीं। पहले कुछ दिन आपका इलाज किया जाएगा और उसका अगर कोई मुफ़ीद नतीजा न निकला तो ऑपरेशन किया जाएगा?

    मैं दोनों के लिए तैयार हूँ डॉक्टर। मैंने कहा, फिर हम कमरे से बाहर निकल आए।

    (5)
    मरीज़ और मुआलिज
    डॉक्टर शीदी के ज़ेर-ए-इलाज मुझे दो हफ़्ते गुज़र गए। चचा जाफ़र जैसे मसरूफ़ आदमी का अपने शहर से बाहर रहना बहुत मुश्किल था। चुनाँचे वो बूढ़ी नर्स को मेरे पास छोड़ कर रुख़्सत हो गए थे। मेरी आँखों की अब तक वही कैफ़ियत थी। ज़िंदगी एक दुख भरी तारीकी में गुज़र रही थी। वही चंद लम्हे मेरे लिए ख़ुशगवार होते थे जब डॉक्टर शीदी मेरे पास आ बैठते और किसी पुर लुत्फ़ मौज़ू पर गुफ़्तगू छेड़ कर मुझे उसमें ऐसा मुनहमिक कर लेते कि सिवाय एक ज़ेहनी मसरूफ़ियत के मुझे और किसी बात का एहसास न रहता।

    वो उमूमन ऐसे मौज़ू पर गुफ़्तगू करते या इनमें मेरी दिलचस्पी पैदा करते जिनके मुतअल्लिक़ आँखें रखने वाले भी तख़य्युल ही की आँखों से काम ले सकते हैं। आग़ाज़ आफ़रीनश, क़दीम तहज़ीबें, यूनानी फ़लसफ़ा, नफ़सियात और उसी क़िस्म के दूसरे मौज़ूओं पर वो कोई बात छेड़ कर मेरे तख़य्युल को इक रास्ता सुझा देते और मैं उनके मुतअल्लिक़ अपनी बिसात के मुताबिक़ बात में से बात पैदा करती रहती और न मालूम फ़िलवाक़ा ऐसा था या महज़ मेरी हौसला अफ़ज़ाई की ग़रज़ से डॉक्टर उमूमन मेरी ज़हानत और अंदाज़-ए-फ़िक्र की बहुत दाद देते।

    ये ख़्याल अफ़रोज़ सोहबतें लज़ीज़ भी होती हैं और तवील भी। शायद मेरे अलावा ख़ुद डॉक्टर भी उनसे कम लुत्फ़ अंदोज़ न होते थे। थोड़े ही दिन बाद वो अपनी फ़ुर्सत का सारा वक़्त बल्कि बाज़ औक़ात अपना काम अपने असिस्टेंट के सुपुर्द करके मेरे पास आ बैठते और कोई गुफ़्तगू वहीं से शुरू कर देते जहाँ पिछली सोहबत में हमने उसे ख़त्म किया था। ख़्याली बातें न करते तो मेरे एहसासात का ख़्याल रखते हुए उनकी आँखें मेरी आँखों का काम सर अंजाम देतीं और वो आस-पास की एक-एक चीज़ जिसे देखने की मैं ख़्वाहिश करती, बड़ी तफ़सील से मुझसे बयान करने लगते। रफ़्ता-रफ़्ता मुझे एहसास होने लगा कि अलावा मुझसे हमदर्दी होने के डॉक्टर के दिल में मेरी क़दर भी पैदा होती जा रही है।

    डॉक्टर के रुख़्सत हो जाने के बाद बाज़ औक़ात मुझे बहुत देर तक अपनी नाबीनाई का एहसास तक न होता। मेरे तख़य्युल के लिए सोचने और ग़ौर करने को हमेशा कुछ न कुछ मौजूद रहता था लेकिन जब कभी अमली ज़िंदगी का कोई वाक़िआ मुझमें अपनी नाबीनाई का एहसास ताज़ा कर देता तो उस तमाम ख़ुद फ़रामोशी की कसर निकल जाती कि फिर तकान के सिवा और कोई शै मेरे लिए बाइस-ए-तस्कीन न बन सकती।

    एक शाम दरीचे के पास कोच पर बैठी थी। सर दरीचे के बाहर निकाल रखा था। दरख़्तों पर बुलबुलों के नग़मे सुनाई दे रहे थे कि यकायक मुझे एक सुरीली तान सुनाई दी और फिर एक ख़ास भीनी-भीनी ख़ुशबू आई। मालूम हो गया कि डॉक्टर शीदी मेरे क़रीब ही कहीं होंगे क्योंकि जब कभी वो आते यही ख़ुशबू कमरे में फैल जाती थी। उसी वक़्त डॉक्टर की आवाज़ आई, मैं आपको दरीचे में देख कर इधर आ निकला। 

    में यहाँ चिड़ियों के नग़मे सुन रही थी डॉक्टर। क्या अभी-अभी आप ही कोई मिसरा गुनगुनाते ज़ीने पर चले आ रहे थे?

    जी हाँ! वो मैं ही था। 

    कितना प्यारा राग था। मेरी ज़बान से निकला, जब से बसारत गई मेरी क़ुव्वत-ए-सामिआ तेज़ होती जा रही है डॉक्टर। क्या आफ़ताब ग़ुरूब हो गया? डॉक्टर मेरे क़रीब आकर खड़े हो गए फिर कहा, अभी-अभी ग़ुरूब हुआ है। मेरा ख़्याल है किसी तरफ़ को चाँद तुलूअ हो रहा होगा। आइए मैं आपको बाग़ में ले चलूँ। 

    मैं फ़ौरन तैयार हो गई। उसने मुझे अपने हाथ का सहारा दिया। डॉक्टर शीदी दराज़ क़द और मज़बूत आदमी मालूम होते थे। उनकी आवाज़ भी बहुत दिलफ़रेब थी जिस वक़्त हम दोनों बाग़ के ज़ीने पर उत्तर आए अचानक मेरा दिल धड़कने लगा। यक़ीनन वो बहुत ख़ूबसूरत भी होगा! मेरा दिल बेइख़्तियार चाहने लगा कि उसकी शक्ल देखूँ।

    हम दो मिनट बाग़ के ज़ीने पर चुपचाप खड़े रहे। फिर डॉक्टर शीदी ने कहा, अब चाँद तुलूअ हो रहा है। बग़ीचे पर उसकी हल्की-हल्की रौशनी काँपने लगी। चाँद बहुत सफ़ेद है न बहुत ज़र्द। पत्ते भी हिल रहे हैं। उनकी आवाज़ तो आप भी सुनती होंगी?

    हाँ आवाज़ आ रही है। क्या नन्हे-नन्हे पौदे भी झूम रहे हैं? मैंने पूछा।

    नहीं इतनी तेज़ हवा नहीं। बस सर बुलंद दरख़्तों की टहनियाँ हिल रही हैं। लीजिए चाँद अब कुछ ऊपर को बढ़ आया। शहतूत का साया ख़ौफ़नाक मालूम होने लगा। 

    क्या शहतूत भी लगे हैं?

    हाँ गर्मियों का आग़ाज़ है, कच्चे शहतूत लगे हैं। चलिए आपको फ़व्वारे की तरफ़ ले चलूँ। 

    हम दोनों फ़व्वारे के पास एक कोच पर जा बैठे। वो कहने लगे, फ़व्वारे पर एक औरत की गर्दन तुर्शी हुई है। औरत की दोनों आँखों में से पानी निकल रहा है गोया आँसू बह रहे हैं। मैं बोल उठी, आह कितना अलमनाक तख़य्युल है। न जाने ऐसा बुत क्यों तराशा गया। 

    चाँद की किरनें नन्ही-नन्ही बूंदों पर चमकने लगीं। लीजिए अभी हमारे सामने से एक जंगली ख़रगोश झाड़ी में भाग गया। सरसराहट आप ने भी सुनी होगी। 

    हाँ सुनी थी। डॉक्टर आज तो आप बिल्कुल वही ख़िदमत अंजाम दे रहे हैं जो कभी मेरी आँखें दिया करती थीं। मैं सोच रही हूँ अगर मैं यहाँ से मायूस गई तो घर पर मेरी आँखों का काम कौन देगा?

    डॉक्टर दो लम्हे चुप रहा। मुझे महसूस हुआ कि वो मुझे बग़ौर देख रहा है। मैं कुछ शर्मा सी गई और बोली, डॉक्टर? आप क्या कर रहे हैं? चुप हैं? वो बोले, आप ने अभी-अभी मुझसे सवाल किया था कि आप यहाँ से मायूस गईं तो घर पर आप की आँखों का काम कौन अंजाम देगा। तो ख़ातून आपको जो बेहतरीन दोस्त होगा उसका सबसे बड़ा फ़र्ज़ यही होगा कि आपकी आँखों का काम दे। 

    मैं तो मायूस लहजे में बोली, मगर मैं कोई भी ऐसा दोस्त नहीं रखती डॉक्टर। बिलफ़र्ज़ अगर ऐसा कोई निकल भी आए तो उसे इतनी फ़ुर्सत कहाँ होगी कि अपनी ज़िंदगी के तमाम काम छोड़ के मुझे दुनिया की बातें सुनाया करे। ऐसी हमदर्दी तो फ़रिश्तों में होती है। इसलिए तो मैं आपको फ़रिश्ता समझती हूँ। 

    कोई भी ऐसा दोस्त नहीं? डॉक्टर ने मुकर्रर पूछा। उसकी आवाज़ में संजीदगी और दर्द भरा हुआ था।

    कोई नहीं डॉक्टर। मैंने कहा।

    क्या, क्या ये ख़िदमत मैं अंजाम दे सकता हूँ?

    मैं हैरान हुई, क्या? कौन सी ख़िदमत?

    यही कि ज़िंदगी भर आपकी आँखों का काम मेरे अलफ़ाज़ दे सकें। 

    ज़िंदगी भर? मैंने हैरान हो कर पूछा।

    हाँ। 

    ये क्योंकर मुमकिन है? ज़िंदगी भर? मैं पागलों की तरह सवाल किए जा रही थी।

    मेरी हैरत अभी ख़त्म न हुई थी कि डॉक्टर शीदी ने अपना एक हाथ मेरे कँधे पर रख दिया और भारी आवाज़ में बोले, ज़ेबा! मैं ज़िंदगी भर इस ख़िदमत को अंजाम दूंगा। मुझे तुमसे मोहब्बत है। शदीद! बड़ी शदीद। 

    मैं लरज़ गई। सिर्फ़ मोहब्बत के फ़िक़रे सुनना और अपने चाहने वाले का चेहरा न देखना किस क़दर अजीब होता है। ऐसा मालूम होता था जैसे कहीं दूर से एक मलकूती राग मेरे कानों में पहुँच रहा है। मैं अज़ ख़ुद रफ़्ता होकर डॉक्टर पर गिर पड़ी। मेरी ज़बान से सिर्फ़ इतना निकल सका, शीदी!

    शीदी ने मुझे मज़बूती से पकड़ रखा था। लरज़ी हुई आवाज़ से मेरे कान में पूछने लगे, ज़ेबा! तुम्हें भी मुझसे मोहब्बत है? मैं बेख़ुदी के आलम में बोली, यक़ीनन। मुझे तुम्हारी आवाज़ से इश्क़ है। मैं तुम्हारे फ़लसफ़ियाना और शायराना फ़िक़रों की शैदा हूँ। 

    (6)
    रंगीन अंधेरा
    इस अहद-ओ-पैमान के बाद मोहब्बत का एक निहायत पुर लुत्फ़ और रंगीन दौर शुरू हो गया। मेरी रग-रग में डॉक्टर शीदी की मोहब्बत साँस लेती मालूम होती थी। उनकी आवाज़ सुनते ही मेरी ख़्वाबीदा रूह जैसे जाग उठती। इनके मज़बूत हाथों को छू कर मैं इक नई ज़िंदगी हासिल करती थी। मेरी ज़िंदगी की ये पहली मोहब्बत थी और यक़ीनन आख़िरी।

    अब ये हर रोज़ का मामूल हो गया था कि अपने काम से फ़ारिग़ हो कर शाम के वक़्त शीदी मेरी तरफ़ आ जाते और मुझे बग़ीचे में चहल क़दमी करवाते। वो घंटों पत्तों का हिलना, आसमान का रंग, शफ़क़ की सुर्ख़ी, फूलों की रंगीन ज़िंदगी की कहानी मुझे सुनाते रहते। मेरी आँखें नहीं थीं मगर शीदी के फ़िक़रों ने आँखों की कमी को बहुत हद तक भुला रखा था। इस दौरान में चचा जाफ़र तीन दफ़ा एक-एक दिन के लिए आए और मुझे देख कर कुछ मायूस से चले गए।

    आख़िर जब एक महीना गुज़र गया तो एक दिन शीदी ने कहा, ज़ेबा! मालूम होता है कि ऑपरेशन करना ही पड़ेगा। ये सुन कर मैं डर गई। शीदी मुझे ऑपरेशन के नाम से डर लगता है। मैं सच कहती हूँ, पहले मैं अपनी नाबीनाई से बेज़ार थी मगर अब मोहब्बत ने मेरी रूहानी आँखें जगमगा दी हैं। मुझे अब अपनी आँखों की परवाह नहीं रही। 

    मगर प्यारी। उन्होंने प्यार के लहजे में कहा, तुम मुझे तो नहीं देख सकतीं। मैं मचल गई, हाँ शीदी! अलबत्ता मुझे तुम्हारे देखने की कितनी तमन्ना है। तुम ख़ुद ही मुझे बता दो तुम कैसे हो? मैं तुम्हारी आवाज़ सुन कर अंदाज़ लगा सकती हूँ कि तुम कितने हसीन होगे। अच्छा मुझे देखने तो दो। ये कह कर मैंने अपने दोनों हाथों से उनका चेहरा टटोला। तुम बेहद हसीन हो। तुम्हारी आँखें लम्बी-लम्बी हैं। तुम्हारी पेशानी कुशादा है। 

    ये सब कुछ सही ज़ेबा! ख़्याल करो जब हमारी शादी होगी... जब हमारे नन्हे-नन्हे बच्चे होंगे। उस वक़्त आँखों की ज़रूरत किस क़दर महसूस होगी? शीदी की आवाज़ में एक इर्तिआश था। मैं शर्मा कर दूसरी तरफ़ देखने लगी। फिर शर्मीले अंदाज़ में बोली, शीदी क्या बातें करते हो। शीदी मुझे अपने बाज़ुओं में लेकर बोले, मैं ग़लत नहीं कहता। कुछ अरसे बाद तुम्हें अपनी आँखों की ज़रूरत महसूस होगी। लम्हा भर बाद कुछ सोच कर मैं बिगड़ सी गई, बोली, हाँ, बेशक तुम सच कहते हो, अंधी बीवी मुसीबत होती है, है ना?

    ख़ुदा की क़सम ये बात नहीं है मेरी ज़ेबा! अंधी बीवी तो मुफ़ीद होती है। मुसीबत क्यों होने लगी, मगर मैं नहीं चाहता कि तुम आँखों जैसी नेमत से ज़िंदगी भर महरूम रहो। अगर तुम्हें इस बात का ख़्याल है कि मैं अंधी बीवी को मुसीबत समझता हूँ और महज़ अपने फ़ायदे के लिए तुम्हारी आँखों का ऑपरेशन करना चाहता हूँ तो मैं तुमसे तुम्हारी मौजूदा नाबीनाई की हालत में शादी करने पर तैयार हूँ। कुछ अरसे बाद तुम्हें ख़ुद आँखों की ज़रूरत होगी। उस वक़्त तुम्हारे कहने पर मैं ऑपरेशन करूंगा। ज़ेबा अब तुम्हारा इतमीनान हो गया?

    मैं मुस्कुराई, शीदी, अगर तुम ज़िंदगी भर मुझसे ऐसी ही मोहब्बत करोगे जैसी आज करते हो तो मैं अपनी आँखों की कमी को कभी महसूस न करूंगी। मेरे प्यारे शीदी! तुम्हें नहीं मालूम दिन रात मोहब्बत भरे फ़िक़रे सुनते रहना भी एक फ़िरदौसी ज़िंदगी है। मेरी आँखें आ जाएंगी तो तुम्हारे मोहब्बत भरे अलफ़ाज़ भी कम हो जाएंगे क्योंकि फिर उनकी ज़रूरत न रहेगी। नहीं शीदी, मैं अंधी ही अच्छी। मुझे तुम्हारी मोहब्बत मयस्सर हो तो फिर नाबीनाई का कोई ग़म नहीं। 

    ये सुन कर शीदी बेताब हो गए, ज़ेबा, फिर तो हमें शादी में देर नहीं लगानी चाहिए। इस माह के इख़्तिताम पर हमारी मुश्तरका ज़िंदगी का आग़ाज़ हो तो कैसा है? असल मरहला तो सर जाफ़री की मंज़ूरी का है। उन्हें अब तक इसका भी इल्म नहीं कि यहाँ हममें किस शिद्दत की मोहब्बत हो गई है। मैं धीमे लहजे में बोली, मगर मेरा ख़्याल है चचा को किसी क़िस्म का एतराज़ न होगा। क्योंकि...आख़िर उन्हें भी तो मेरी नाबीनाई का ख़्याल होगा कि नाबीना से शादी कौन करेगा। 

    शीदी बोल उठे, नहीं-नहीं। ऐसा ख़्याल न करो। ये सुर्ख़ गुलाब की पत्ती जैसे होंट और ये सुनहरे बाल और मासूम भोला-भोला चेहरा हर नौजवान को अपनी तरफ़ खींच सकता है। इन चीज़ों को देख कर किसी को नाबीनाई का ख़्याल तक नहीं आ सकता। 

    (7)
    तकमील-ए-आरज़ू
    आख़िर मेरा ख़्याल दुरुस्त निकला। यानी जब डॉक्टर शीदी ने चचा से मेरे लिए दरख़ास्त की तो उन्होंने फ़ौरन मंज़ूर कर लिया मगर इतना ज़रूर कहा, डॉक्टर शीदी जो कुछ आप करना चाहते कुछ दिनों ग़ौर करके कीजिए। एक नाबीना लड़की से शादी करना ग़ौर तलब मामला है। क्या आप ने इसपर काफ़ी सोच लिया है? मैं नहीं चाहता कि आइन्दा आपकी या ज़ेबा की इज़्दवाजी ज़िंदगी में उसकी नाबीनाई की वजह से दिक़्क़तें पैदा हों। 

    सर जाफ़र! डॉक्टर शीदी की दिल फ़रेब आवाज़ आई, मैंने इसपर काफ़ी ग़ौर कर लिया और इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि मुझे ख़ातून ज़ेबा से बेहतर बीवी इस दुनिया में नहीं मिल सकती। आप इतमीनान रखिए इंशा अल्लाह कोई ऐसी सूरत पैदा न होगी जिससे ज़ेबा को उनकी नाबीनाई के बाइस किसी क़िस्म की तकलीफ़ हो। 

    फिर तो मैं मुत्मइन हूँ। चचा ने कहा।

    इस गुफ़्तगू के बाद उसी शाम डॉक्टर शीदी भागे-भागे मेरे पास आए और मुझे लिपटा लिया। ज़ेबा, ज़ेबा, मुझे मुबारकबाद दो। तुम्हारे चचा ने इज़ाज़त दे दी। 

    पन्द्रह दिन बाद अप्रैल के आख़िरी हफ़्ते की एक ख़ुशगवार शाम हमारा अक़्द निहायत ख़ामोशी से हो गया। शीदी कह रहे थे कि मैं इस शाम अपने लम्बे दामनों वाले उरूसी लिबास में नारंगी और मोतिया के फूलों में लिपटी लिपटाई ऐसी मालूम हो रही थी जैसे यूनानियों के हुस्न-ओ-इश्क़की देवी। हमने अपनेअय्याम-ए-उरूसीएक चमकीले साहिल पर बसर किए। वो मेरी ज़िंदगी का इंतहाई पुर लुत्फ़ और रंगीन ज़माना था। मुझे अपनी नाबीनाई का ज़्यादा सदमा न रहा था मगर मैं महसूस कर रही थी कि शीदी की दिली तमन्ना ये थी कि मेरी बसारत बहाल हो जाए और एक चाहने वाले की यही तमन्ना होनी चाहिए।

    चुनाँचे एक दिन जब मैं दरीचे में खड़ी समुद्री हवा से लुत्फ़ अंदोज़ हो रही थी वो आगए और कहने लगे, ज़ेबा! ज़िंदगी के हर लम्हे पर ऐसा शुबहा होता है जैसे हम फ़िरदौस में बैठे हों। आज तुम्हारी आँखें होतीं तो ये ख़लिश न रहती जो मेरे दिल में ख़ार बन कर खटक रही है। 

    मैं मुस्कुरा कर बोली, अगर मेरी नाबीनाई का सदमा हमारी मसर्रत में ख़लल अंदाज़ हो रहा है तो मैं ऑपरेशन के लिए तैयार हूँ शीदी। 

    क्या वाक़ई?

    हाँ शीदी, बिल्कुल। 

    तुम बड़ी अक़्लमंद लड़की हो ज़ेबा। सोचो तुम्हारी आँखें आ जाएंगी तो हमारी ज़िंदगी किस क़दर रौशन होगी? इसका ख़्याल वफ़ूर-ए-मसर्रत से मुझे पागल बना देता है। तुम मुझे देख स्कोगी, अपने शौहर को!

    मैं बेताब हो कर बोली, अल्लाह वो वक़्त कितना मुबारक होगा! तुम्हें देखना! अपने प्यारे शीदी को देखना। मेरी तमाम रूह खिंच कर मेरी आँखों में आ जाएगी। फिर एक लम्हे के बाद कुछ अफ़सुरदगी के लहजे में बोली, मगर शीदी अब मैं तुम्हारे दिल की आवाज़ सुन रही हूँ। आँखें आ जाएंगी तो हमारी मोहब्बत चुपचाप हो जाएगी। 

    शीदी हँस पड़े, पागल लड़की, कोई इतनी सी बात पर आँखें खो देता है?

    क्यों नहीं शीदी? मैं कहने लगी, क्यों नहीं? मुझे तुम्हारे मोहब्बत भरे फ़िक़रे आँखों से कहीं ज़्यादा महबूब हैं। मैं उन फ़िक़रों को खो दूँगी। उनसे महरूम हो जाऊँगी। 

    शीदी बोले, तुम्हें तो महज़ मेरे फ़िक़रों से महरूम हो जाने का अंदेशा है मगर क्या मुझे इस बात का ख़दशा नहीं पैदा हो सकता कि तुम्हारी आँखें आने पर कहीं... कहीं मैं तुम्हारी मोहब्बत ही से महरूम न हो जाऊँ। मैं समझ न सकी।

    ऐं, मोहब्बत से महरूम? इससे तुम्हारा क्या मतलब है?

    शीदी दो लम्हे ख़ामोश रहे, न जाने क्या कर रहे थे। मैंने फिर पूछा, शीदी बोलते क्यों नहीं? तुम मोहब्बत से महरूम क्यों होने लगे? शीदी कहने लगे, ज़ेबा! मैं साफ़-साफ़ बता दूँ? देखो मुझे माफ़ करदो। मैंने बड़ा धोका दिया और शायद इस धोके का इन्कशाफ़ अब बाद अज़ वक़्त हो मगर अब बताए देता हूँ कि मैं कोई हसीन आदमी नहीं हूँ। मैं कुछ हैरान हुई, मगर जब मैं अपनी उँगलियों से तुम्हारे चेहरे को टटोलती हूँ तो तुम बड़े हसीन मालूम होते हो। 

    हाँ, उँगलियों का महसूस करना और बात है और आँखों से देखना अलहदा बात। अब तुम मुझसे मोहब्बत करती हो इसलिए भी मैं तुम्हें हसीन मालूम देता हूँ। आँखों से देखने के बाद न मोहब्बत होगी न में हसीन मालूम हूँगा। 

    शीदी हल्की हँसी हँस पड़े। जो शख़्स हँसी इतनी होश रुबा और मूसीक़ी आमेज़ हो वो बदसूरत हो सकता है? कहने लगे, देखा, आख़िर डर गईं ना। लेकिन ज़ेबा, मेरी बदसूरती तुम्हें अंधा नहीं रख सकती। एक वफ़ादार शौहर इतना ख़ुदग़रज़ नहीं हो सकता। वो अपनी बीवी के लिए हर क़ुर्बानी पर तैयार हो जाता है। ख़्वाह मुझे देखने के बाद तुम मुझसे नफ़रत ही करो मगर मैं ज़रूर तुम्हारी आँखों का ऑपरेशन करूंगा। ये कहते हुए वो मुझे सेहन-ए-बाग़ में ले आए।

    मैं कुछ सोचने लगी। बग़ीचे में सन्नाटा था। दरीचे के पास एक नन्हा सा परिंद गा रहा था। समंदर की मौजों की आवाज़ मुसलसल आ रही थी। बड़ी देर बाद मैंने सर उठाया, शीदी, तुम कहाँ हो? अंधेपन के बाद इस सवाल की मुझे आदत हो गई थी, फिर बोली, तुम यकलख़्त चुप हो गए। क्या सोच रहे हो?

    प्यारी! मैं ये सोच रहा था कि जब मोहब्बत के अंधे देवता की आँखें पैदा होती हैं तो क्या होता है। 

    मैंने एक गहरी साँस ली, शीदी तुम बड़े बदगुमान आदमी मालूम होते हो। मुझे तुम्हारे हुस्न या बदसूरती से यक़ीनन मोहब्बत नहीं। मुझे तुमसे मोहब्बत है। यक़ीन करो तुमसे। काश, मैं अपना दिल खोल कर तुम्हें बता सकती। तुम मेरी आँखों का ऑपरेशन करो और देख लो। मेरे मोहब्बत का देवता तुम्हारी सूरत के मामले में हमेशा अंधा ही रहेगा। 

    क्या तुम दिल की गहराइयों से कह रही हो ज़ेबा? उन्होंने पूछा।

    हाँ-हाँ! मेरे प्यारे शीदी दिल की गहराइयों से। 

    तुम मुझसे हमेशा मोहब्बत करोगी ज़ेबा?

    हमेशा शीदी। ये सुन कर शीदी ने मुझे मज़बूती से अपने बाज़ुओं में जकड़ लिया।

    (8)
    कशमकश
    इस गुफ़्तगू के दूसरे हफ़्ते मेरे ऑपरेशन की तैयारियाँ होने लगीं। चचा जाफ़र और डॉक्टर शीदी मुझे तसल्ली दिलासे देते रहते थे। आख़िर वो हैबतनाक दिन आ गया और मेरा ऑपरेशन हुआ। वो वक़्त भी गुज़र गया। अब मेरी आँखों पर पट्टियाँ बँधी हुई हैं। कमरे में अंधेरा रखा जाता था। नवें दिन मेरी पट्टियाँ खुलने वाली थीं। गोया अगर मेरी क़िस्मत में हुआ तो नौ दिन के बाद मैं अपने महबूब शौहर का चेहरा देख सकूँगी। न पूछिए वो अय्याम किस बेक़रारी और तज़ब्ज़ुब में कटे।

    जिस सुबह मेरी पट्टियाँ खुलने वाली थीं उसकी रात शीदी मेरे कमरे में कुछ घबराए-घबराए से आए। ज़ेबा, आज की शाम ज़ाए नहीं करनी चाहिए, क्या पता ये शाम हमारी मोहब्बत की आख़िरी शाम हो। इस शाम के बाद क्या पता हमारी तक़दीर बदल जाए। 

    मुझे सदमा हुआ, शीदी तुम ऐसी बातें करोगे तो मैं अपनी पट्टियाँ अभी खोल कर फेंक दूँगी। शीदी बोले, तो फिर शायद आज ही शाम से ज़िंदगी का रुख़ बदल जाए। मैं चिढ़ कर बोली, अगर मेरी आँखों की रौशनी से तुम्हारी ज़िंदगी तारीक हो जाने का अंदेशा है तो मैं कभी न चाहूँगी कि मेरी आँखें आ जाएं। 

    अच्छा ज़ेबा, कल तुम्हारी मोहब्बत और मेरी कम रुई का मुक़ाबला है। मैं बोली, बेशक होगा शीदी, औरत अपने शौहर को बहुत ही चाहती है। खुसूसन ऐसी लड़की जिसने अपनी ज़िंदगी में शौहर के सिवा कभी किसी मर्द से मोहब्बत न की हो। क्या तुमको इल्म नहीं मैंने सिवाए तुम्हारे कभी किसीसे मोहब्बत नहीं की। 

    शीदी बग़ौर मेरे चेहरे का मुताला कर रहे थे क्योंकि वो ख़ामोश थे फिर थोड़ी देर बाद झुक कर मेरे रुख़्सारों को छुआ और बोले, अच्छा ज़ेबा, ख़ुदा हाफ़िज़। सुबह देखा जाएगा कि जब मोहब्बत के अंधे देवता की आँखें पैदा होती हैं तो क्या होता है। मैं मुस्कुरा कर बोली, देख लेना। 

    (9)
    हुस्न या मुहब्बत?
    दूसरे दिन की सुबह को मैं कभी नहीं भूल सकती। शीदी ने ख़्वाह मख़्वाह मेरे दिल में वसवास सा पैदा कर दिया था। अव़्वल तो ये धड़का कि बसारत बहाल होती है या नहीं। हो भी जाती तो फिर तरह-तरह के अंदेशे थे। मैं ख़ुदा से दुआएं मांग रही थी कि माबूद! मुझे इस इम्तहान में कामयाब कर। कभी अपने दिल से बातें करने लगती कि क्या वाक़ई जिस शख़्स की मैं शैदाई हूँ जिसे मैं दुनिया का बेहतरीन मर्द समझती हूँ वो कम रु और करीह मंज़र आदमी है? क्या उसे देख कर मेरी मोहब्बत लरज़ जाएगी? मैं ये दुआ नहीं करती कि वो बदसूरत न हो बल्कि ये दुआ करती हूँ कि उसे देख कर मेरी मोहब्बत सहम न जाए। मुझे शीदी से मोहब्बत है। मोहब्बत है। मेरे क़दम इस राह में कभी न डगमगाएंगे मगर फिर आप से आप दिल सरगोशी में कहने लगता, पागल लड़की मोहब्बत का तअल्लुक़ तो दिल से पहले आँख से है। मोहब्बत देख कर होती है।

    ग़रज़ मेरी रात शदीद तरीन इज़्तिराब में कटी। सुबह हुई तो दिल मारे अंदेशों के बैठा जा रहा था। जब शीदी मेरे कमरे में दाख़िल हुए तो मैं हाँप रही थी। बेबस हो कर उनसे लिपट गई।

    ज़ेबा, मेरी ज़ेबा! कैसी हो रही हो?

    मैं अच्छी हूँ। मगर एक सिसकारी निकल गई।

    क्यों? मेरी क़िस्मत पर रो रही हो? उन्होंने भारी आवाज़ से पूछा। मैं ज़ब्त करके बोली, मैं सोच रही हूँ, इतनी मुद्दत बाद मैं दुनिया को कैसे देखूँगी! इस ख़्याल से ख़ौफ़ मालूम होता है। 

    मैंने शीदी का गर्म साँस अपने रुख़सार पर महसूस किया फिर बोली, शीदी, जब मैं तुम पर पहली निगाह डालूँगी तो मेरे दिल की क्या हालत होगी? उफ़ मेरे अल्लाह! शीदी संजीदा लहजे में बोले, ज़ेबा, तुम्हारी आँखों की पट्टियाँ मैं नहीं खोलूँगा, मुझे डर लगता है। मेरा असिस्टेंट ये ख़िदमत अंजाम देगा। जैसी तुम्हारी मर्ज़ी शीदी। मेरा तो यही ख़्याल था कि तुम खोलोगे और दुनिया में सबसे पहले मुझे तुम्हारी हसीन सूरत नज़र आएगी। 

    अगर वो हसीन होती तो ऐसा ही होता ज़ेबा। 

    आख़िर वो वक़्त आ गया कि मेरी पट्टियाँ खोली जाने लगीं। मैं चुपचाप लेटी थी। मेरे इतराफ़ दो तीन डॉक्टरों के बोलने की आवाज़ आ रही थी। मेरे दिल की अजीब हालत थी। मालूम होता था कि शीदी भी उस कमरे में मौजूद हैं। आख़िर पट्टी खुल गई। डॉक्टर ने मुझे देखने को कहा।

    उफ़ वो लम्हा! पलकों को पलकों से जुदा करना। रौशनी के लिए! या अबदी तारीकी के लिए! सहमे और धड़कते हुए दिल के साथ मैंने पलक उठाई। मैं लरज़ गई और एक चीख़ सी मेरे मुँह से निकली। रौशनी की पहली किरन मैंने महसूस की। उस धुँधली रौशनी में से कमरे के रंग उभरते और वाज़ेह होते जारहे थे। मैंने इधर उधर देखा। वहाँ कोई न था। मैं एक सब्ज़ दरीचों वाले हसीन कमरे में कोच पर पड़ी थी। खिड़की में से आसमान नज़ारा अफ़रोज़ था। वही नीला, रौशन हलम से मुस्कुराता हुआ आसमान।

    शीदी! शीदी! मेरे मुँह से निकला। शीदी ने मुझे मेरी आँखें वापस दे दीं। ये उन्हीं के प्यारे हाथों का करिश्मा है। मेरे दिल में मोहब्बत का एक चश्मा उबलने लगा। उस शख़्स को देखने के इश्तियाक़ ने मुझे पागल बना रखा था जिससे मुझे मोहब्बत थी और जिसने मुझे आँखें बख़्शी थीं। दफ़्अतन पर्दे के पास मुझे कुछ आवाज़ आई। मैं ने मुड़कर देखा और चीख़ कर कहा, शीदी! मर्दाना हुस्न-ओ-वजाहत का एक दिलफ़रेब नमूना पर्दे के पास खड़ा था। लम्बी-लम्बी नशीली आँखें, सुनहरे बाल, हसीन मांग, निहायत शगुफ़्ता चेहरा। मैं बेख़ुद हो कर उसकी तरफ़ गई। वफ़ूर-ए-शौक़ से मेरी ज़बान से बमुश्किल इतना निकला, मेरे शीदी!

    नौजवान ने सर झुका कर मुझे सलाम किया। भारी आवाज़ में बोला, डॉक्टर शीदी बाहर हैं मोअज़्ज़ज़ ख़ातून। मैं उनका असिस्टेंट हूँ। 

    ओ। मैंने मायूस लहजे में कहा, मुझे ग़लती हुई, क्या आप बराह करम उन्हें बुला देंगे। असिस्टेंट बोला, पाँच मिनट में वो ख़ुद ही आ जाएंगे। वो अपने इस वक़्त के इज़्तिराब को मरीज़ों में मिटाने की कोशिश कर रहे हैं। 

    मैं अपना इश्तियाक़ छुपा न सकी, असिस्टेंट, तुमको मालूम है कि मैं मुद्दत से अंधी थी। मैंने अपने शौहर का चेहरा कभी नहीं देखा। आप मुझे बता देंगे कि वो कैसे हैं? वो मुस्कुराया, वो, मेंटल पीस पर डॉक्टर शीदी की तस्वीर रखी है इधर आइए। 

    मैं मेंटल पीस के पास गई और तस्वीर उठा ली, ये शीदी की, मेरे रफ़ीक़-ए-ज़िंदगी की तस्वीर है? मेरे अल्लाह! मेरे मुँह से एक आह निकल गई। ये एक चालीस साला मर्द की तस्वीर थी। पेशानी फ़राख़ मगर नक़्श निहायत भद्दे, चेहरे पर करख़्तगी बरस रही थी। उस तमाम तस्वीर पर कुछ ऐसी बेरौनक़ी और बदसूरती छाई हुई थी कि मेरे पाँव तले की ज़मीन निकल गई। सामने क़द-ए-आदम आईने में अपना काहिदा मुजस्समा देख कर मैं लरज़ गई। मुझ सी नाज़नीन औरत ये किस मर्द की मोहब्बत में गिरफ़्तार हो गई।

    असिस्टेंट मुझे बग़ौर देख रहा था, बोला, भोली ख़ातून! किस सोच में खड़ी हो? आपकी कुछ दिनों की नाबीनाई ने आपकी ज़िंदगी से बड़ी बदसलूकी की। जब डॉक्टर शीदी से आपकी शादी होने लगी तो कई बार मेरा जी चाहा कि किसी ख़ुफ़िया तरीक़ पर आपको उनकी बदसूरती के राज़ से आगाह करदूँ मगर आप जानिए डॉक्टर शीदी भला ऐसा मौक़ा मुझे कब देने लगे थे? आख़िर उन्होंने वही किया जिसका मुझे अंदेशा था। उनकी उम्र चालीस साल की हो गई। उनकी तजर्रुद की ज़िंदगी की तमाम ज़िम्मेदरी उनकी शक्ल पर आइद होती है। इस इलाक़े की तक़रीबन तमाम लड़कियों ने उन्हें बाइकॉट कर रखा है। आख़िर आपकी बदनसीबी आपको यहाँ खींच लाई। 

    मैं शशदर खड़ी थी और टकटकी बाँध कर उस हुस्न के देवता को देख रही थी जो मेरे सामने खड़ा था। ये बिल्कुल अफ़सानों के हीरो का सा हुस्न-ओ-जमाल रखता था। कुछ देर बाद मेरी नज़र अपने शौहर की तस्वीर पर गई।

    मगर मुझे डॉक्टर शीदी से मोहब्बत थी, मोहब्बत है। मैंने जल्दी से कहा।

    आपकी मोहब्बत नाबीनाई की मरहून-ए-मन्नत है। अब आप अपनी आँखों से मशवरा लीजिए। सच तो ये है ख़ातून ज़ेबा, आप सी नाज़नीन लड़की को डॉक्टर साहब ने जैसे मकरूह इंसान के साथ देख कर मेरे दिल पर छुरियाँ चलने लगती हैं। 

    आपको एस बातें नहीं करनी चाहिएं असिस्टेंट। मोहब्बत का दार-ओ-मदार हुस्न पर नहीं होता। नौजवान असिस्टेंट दिलफ़रेब आवाज़ में हँस पड़ा, ईमान से कहिए आपको अपने शौहर की तस्वीर को देख कर मायूसी नहीं हुई? मैं बोली, इसके लिए मैं पहले से तैयार थी। शीदी ने मुझे ख़ुद बता दिया था कि वो हसीन नहीं हैं मगर, मैं समझती थी। वो उनकी शक्ल ऐसी तो न होगी। 

    अगर आपको शुबहा तो-तो खिड़की से झाँक कर देख लीजिए। वो बरामदे में एक मरीज़ को कुछ हिदायतें दे रहे हैं। 

    मैं धड़कते हुए दिल से खिड़की की तरफ़ गई और झाँक कर देखा। आह, मेरा दिल बैठ गया। वो तस्वीर से ज़्यादा बदसूरत थे। क्या मैं इसी शख़्स की परस्तिश करती हूँ? कोई औरत इससे मोहब्बत कर सकती है?

    मैं सर पकड़ कर एक कोच पर बैठ गई। नौजवान असिस्टेंट सामने खड़ा था। उसने एक गहरे नीले रंग की क़मीस पहन रखी थी। गहरे सब्ज़ रंग की निकटाई ज़ेब-ए-गुलू थी। वो एक अफ़सानवी अंदाज़ में मुझपर झुक कर बोला, ख़ातून ज़ेबा, आप बड़ी जल्द बाज़ लड़की हैं मगर आपसे ज़्यादा ताज्जुब मुझे आपके चचा पर होता है। उन्होंने आपको इस तारीक ग़ार में क्यों फेंक दिया? क्या डॉक्टर की दौलत और सरवत ने उन्हें अंधा कर दिया था?

    मैं जल्दी से बोली, नहीं-नहीं, सर जाफ़र को दौलत व हशमत की मुतलक़ परवाह नहीं। उन्होंने यही सोचा होगा न कि अंधी लड़की... 

    ये ज़ुल्म है सरीहन ज़ुल्म। असिस्टेंट ने कहा, आप सी हसीन लड़की अगर अंधी भी थी तो किसी को क्या परवाह हो सकती थी? मिसाल के तौर पर मैं ख़ुद अपने आपको पेश कर सकता था। अगर आप सी अंधी बीवी मुझे मिल जाती तो मैं अपने आपको ख़ुश नसीब... मैंने रोका, ऐं-ऐं, असिस्टेंट! क्या कहते हो? मैं तुम्हारे चीफ़ की बीवी हूँ। तुम बहुत नामाक़ूल शख़्स निकले। 

    माफ़ करना ख़ातून ज़ेबा, मुझसे लग़्ज़िश हुई। 

    मैंने रुखाई से कहा, अच्छा तो अब आप बराह करम डॉक्टर शीदी को बुलाएं, मैं उनसे मिलना चाहती हूँ। 

    बहुत अच्छा। ये कह कर असिस्टेंट बाहर चला गया।

    (10)
    जब मोहब्बत के अंधे देवता की आँखें पैदा होती हैं।

    थोड़ी देर बाद डॉक्टर शीदी अपने करख़्त वज़ा के चेहरे पर मुस्कुराहट पैदा करने की कोशिश करते हुए कमरे में आए और ख़ूबसूरत असिस्टेंट बाहर चला गया।

    ज़ेबा। उन्होंने कहा। इनकी आवाज़ में लरज़िश थी। शीदी मेरी ज़बान से निकला और साथ ही हुजूम-ए-जज़्बात से दो मोटे-मोटे आँसू मेरे रुख़सार पर ढलक आए।

    ज़ेबा! आँखें मुबारक! सचमुच तुम देख सकती हो? ऐं रोती हो? क्यों क्या मेरी तक़दीर पर? उन्होंने निहायत अफ़सुरदगी के साथ कहा। उनकी आवाज़ एक अनोखे तौर पर दर्दनाक मालूम हो रही थी। मेरे हवास जैसे सुन्न हो गए थे। नहीं शीदी नहीं। ये कह कर न जाने क्यों मैं सिसकियाँ लेने लगी। वो किसी क़दर क़रीब आ गए। ज़ेबा, जब मोहब्बत के अंधे देवता की आँखें पैदा होती हैं तो यही कुछ होता है... सिसकियाँ, अपने किए पर पछतावा, आँसू। मैं ज़ब्त करके बोली, नहीं शीदी, मैं अपने क़ौल पर क़ाइम हूँ। मैं अब भी, तुमको चाहती हूँ। 

    हाँ, चाहती तो हो, मगर क्या अपने दिल पर हाथ रख कर कह सकती हो कि नाबीनाई के अय्याम में जिस वारफ़्तगी से मुझे चाहा करती थीं वही वारफ़्तगी अब तक मौजूद है?

    मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं, शीदी, मुझे आँखें नहीं चाहिएं। मुझे तुम्हारी मोहब्बत चाहिए। मेरी आँखों में कोई तेज़ाब डाल दो ताकि फिर मैं अपने ख़्वाबों के ज़ज़ीरे में तुम्हारी ही मोहब्बत का गीत गा सकूँ। मेरे शीदी, आँखें बड़ी फ़सादी होती हैं। ये मुझे नहीं चाहिएं। मुझे मोहब्बत की अंधी आँखें चाहिएं। ये कहते हुए मैं रोने लगी।

    ज़ेबा मैं तुम्हारी ज़िंदगी तबाह करना नहीं चाहता। एक मुद्दत तक मेरी वीरान ज़िंदगी तन्हाई और तजर्रुद के आलम में बसर होती रही। फिर तुम आईं और मैंने तुम्हें धोका दे कर तुम्हें अपने मोहब्बत के जाल में फँसा लिया। अब जब कि तुम्हारी बसारत बहाल हो गई है, मेरे धोके का तिलिस्म टूट चुका है।

    मगर शीदी मैं परेशान लहजे में बोली, तुमने मेरी आँखों का ऑपरेशन किया ही क्यों? मैं ख़ुश थी, मैं अंधी थी और मोहब्बत की परस्तार थी।

    वो मेरा इंसानी फ़र्ज़ था ज़ेबा।

    आह, तुम बहुत नेक हो शीदी।

    तुमने अपनी आँखें बंद क्यों कर रखी हैं? शीदी ने पूछा। उनकी आवाज़ में एक दर्द था। मुझे इसकी आदत हो गई है शीदी। आँखें बंद होती हैं तो मैं ख़्वाब और अफ़साने की सरज़मीन पर होती हूँ।

    और जब वो खुल जाती हैं तो एक देवनुमा आदमी तुम्हारे दिल आवेज़ तख़य्युलात की इमारत को मिस्मार कर देता है। यही बात है ना? उन्होंने निहायत अफ़सुरदगी से पूछा। नहीं शीदी, हरगिज़ नहीं। मुझे आँखें बंद रखने में महज़ इसलिए मज़ा आता है कि मुझे अपने इश्क़ के इब्तिदाई दिन याद आ जाते हैं जब मैं अंधी थी और तुमने पहले पहल इज़हार-ए-आरज़ू किया था।

    शीदी ने मेरा बाज़ू छुआ और कमरे की दूसरी तरफ़ ले गए। फिर एक जगह मुझे खड़ा करके कहा, ज़ेबा अब आँखें खोलो। मैंने आँखें खोल दीं। सामने क़द-ए-आदम आईने में हम दोनों का अक्स नज़र आ रहा था। मैं मब्हूत हो कर अपने हसीन और काहिदा और अपने शौहर के भद्दे और करीह मंज़र के अक्स को देख रही थी। मेरा दिल ख़ून हो रहा था। जी चाहता था अपना मुँह नोच लूँ। मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं और बावजूद इंतहाई कोशिश-ए-ज़ब्त के मेरे आँसू निकल आए।

    शीदी निहायत दिल शिकस्ता नज़र आ रहे थे, ज़ेबा! अब तुमने देख लिया? मैं तुम्हारे क़ाबिल नहीं। अगर दुनिया में इंसाफ़ कोई चीज़ है तो मुझे चाहिए कि तुमसे माफ़ी चाहूँ और हमेशा के लिए रूपोश हो जाऊँ। यही मेरी सज़ा है।

    शीदी, ऐसी बातें न करो।

    क्यों ऐसी बातें न करूँ ज़ेबा? आख़िर मुझे अपनी कम रुई का एहसास है। अपने जुर्म का एहसास है। तुम्हारे हुस्न का एहसास है। हर रोज़ तुम मेरी मोहब्बत का मुक़ाबला दूसरों से करोगी। मेरे हसीन असिस्टेंट ही से करोगी। मैं सोचता हूँ कि जब तुम मुझे और उसे यकजा देखोगी तो तुम्हारे दिल पर क्या गुज़रेगी?

    मैं बे क़रार हो गई, शीदी, तुम बेहद बदगुमान हो। उस वक़्त मेरी निगाह इत्तफ़ाक़ से अलमारी पर जा पड़ी। उसमें एक शीशी नज़र आई जिसपर किसी तेज़ाब का नाम जली लफ़्ज़ों में लिखा था। मैंने अलमारी की तरफ़ उंगली से इशारा करके कहा, वो अलमारी में क्या चीज़ रखी है? कोई तेज़ाब है? मैं उसे अपनी आँखों में डाल लूँगी और हमेशा के लिए अंधी हो जाऊँगी फिर तो तुम्हारी ज़िंदगी मज़े से कटेगी ना?

    ये कह कर मैं अलमारी की तरफ़ बढ़ी। शीदी जल्दी से बोले, ठहरो, तुम्हें फिर अंधा बनने की ज़रूरत नहीं। मैं ख़ुद अपनी मकरूह शक्ल हमेशा के लिए छुपा लूँगा। अपनी आँखें ज़ाए न करो। जब हुस्न देखने को मिल जाए तो आदमी को अंधा नहीं होना चाहिए। फिर वो दरीचे की तरफ़ गए और हल्की आवाज़ में कहा, असिस्टेंट!

    उसी वक़्त असिस्टेंट अंदर दाख़िल हुआ। वही हसीन चेहरा, वही मीठी मुस्कुराहट, वही दिल में घर करने वाली नशीली आँखें। मैंने अपना चेहरा फेर लिया।

    शीदी ने निहायत दर्द अंगेज़ लहजे में कहा, ज़ेबा, मैं इंसाफ़ पसंद हूँ। मैं समझ सकता हूँ, मैं तुम सी हसीन लड़की के नाक़ाबिल हूँ। शायद आँखें मिल जाने के बाद ये नौजवान तुम्हारा ज़्यादा मौजूं रफ़ीक़ साबित हो सके।

    मैं हैरान हो कर अपने शौहर को देखने लगी। मायूसी और सदमे से वो पागल हो रहे थे। मैंने रहम और बेबसी के लहजे में कहा, शीदी, तुम जो कुछ कह रहे हो उसे नहीं समझते। तुम्हारा दिमाग़ बेकार हो गया है। शीदी ने संजीदगी से कहा, ज़ेबा, मैं सब कुछ समझता हूँ। इसी लिए तो कह रहा हूँ ख़ुदा हाफ़िज़ ज़ेबा, मुझे माफ़ कर दो। ये कह कर उन्होंने एक आख़िरी नज़र मुझपर डाली और बाहर चले गए।

    मैं चीख़ पड़ी, असिस्टेंट, असिस्टेंट, उन्हें बुलाओ। देखो, ये तेज़ाब की शीशी। मैं ये तेज़ाब अपनी आँखों में डाल रही हूँ। मैं अंधी हो रही हूँ, अपने शौहर की ख़ातिर। कह कर मैंने शीशी का कार्क खोल लिया। एक झटके के साथ शीशी मेरे हाथ से दूर जा गिरी और असिस्टेंट ने क़रीब आकर कहा, दीवानी हो गई हो? वो मकरूह शक्ल अब तुम्हारी ज़िंदगी से बाहर है। मुफ़्त में अपनी आँखें क्यों खोती हो? शिद्दत-ए-मसर्रत से उसकी आवाज़ अजीब हो रही थी।

    क्योंकि... क्योंकि असिस्टेंट मुझे मोहब्बत चाहिए, सिर्फ़ मोहब्बत। डॉक्टर शीदी हसीन न सही मगर मुझसे मोहब्बत करते हैं, दिली मोहब्बत। ऐसी मोहब्बत जिसने मेरी अंधी दुनिया को रौशन कर दिया था। मैं उस मोहब्बत को खो नहीं सकती। मैंने अपनी आँखें बंद कर लीं।

    ज़ेबा! मेरी रूह काँप गई, ऐं, ये किसकी आवाज़ है? डॉक्टर शीदी? मैंने आँखें खोलीं, असिस्टेंट? क्या अभी-अभी डॉक्टर शीदी ने मुझे बुलाया था? मैं सच कहती हूँ मुझे उन ही से मोहब्बत है। उन्हें बुलाओ, उन्हें बुलाओ। अपनी नशीली आँखों से मुझे न देखो। मेरी मोहब्बत हुस्न की मुहताज नहीं। मेरी मोहब्बत, उनकी मोहब्बत, उनकी अथाह मोहब्बत को पुकार रही है।

    मेरी तरफ़ देखो ज़ेबा! क्या मेरी आँखें तुम्हें मोहब्बत का सबक़ नहीं पढ़ा सकतीं? मुझे अपनी इन आँखों से न देखो। दिल की आँखों से देखो। शायद इस तरह तुम इसमें मेरी अथाह मोहब्बत को पा सको। अपनी आँखें बंद कर लो और मेरे चेहरे को टटोलो।

    मैं उस नौजवान को तक रही थी कि अचानक एक नये काँपते हुए एहसास से मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा और न मालूम फ़ितरत के किस इसरार पर जोश-ए-इज़्तिराब के किस तक़ाज़े पर मैंने आप से आप अपनी आँखें बंद कर लीं और तारीकी की क़दीम रफ़ाक़त में एक बार फिर मेरी ज़ी हिस उँगलियों के सिरे एक बे क़रारी से उसके चेहरे के नक़्श-ओ-निगार टटोलने लगे।

    मेरे मुँह से अचानक एक चीख़ निकल गई और मैं एक इज़्तिरार के आलम में अपनी बेताब आँखें खोल दीं। हैरान होकर उस हुस्न के मुजस्समे को देखने लगी। ऐं! शीदी! मेरे शीदी! वो ख़ामोश खड़ा मुस्कुरा रहा था।

                                                                                                                                                                            

    स्रोत:

    Gulistan Aur Bhi Hain (Pg. 221)

    • लेखक: हिजाब इम्तियाज़ अली
      • प्रकाशक: मुजीब अहमद ख़ाँ
      • प्रकाशन वर्ष: 2008

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