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ख़ोरेश्ट

सआदत हसन मंटो

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सआदत हसन मंटो

MORE BYसआदत हसन मंटो

    स्टोरीलाइन

    यह कहानी समाज के एक नाज़ुक पहलू को सामने लाता है। सरदार ज़ोरावर सिंह, सावक कापड़िया का लंगोटिया यार है। अपना अक्सर वक़्त उसके घर पर गुज़ारता है। दोस्त होने की वजह से उसकी बीवी ख़ुर्शीद से भी बे-तकल्लुफ़ी है। सरदार हर वक़्त ख़ुरशीद की आवाज़ की तारीफ़ करता है और उसके लिए मुनासिब स्टूडियो की तलाश में रहता है। अपने उन उपायों से वो ख़ुर्शीद को राम कर के उससे शादी कर लेता है।

    हम दिल्ली में थे। मेरा बच्चा बीमार था। मैंने पड़ोस के डाक्टर कापड़िया को बुलाया, वो एक कुबड़ा आदमी था। बहुत पस्त क़द, लेकिन बेहद शरीफ़। उसने मेरे बच्चे का बड़े अच्छे तरीक़े पर इलाज किया। उसको फीस दी तो उसने क़ुबूल की। यूं तो वो पारसी था लेकिन बड़ी शुस्ता रफ़्ता उर्दू बोलता था, इसलिए कि वो दिल्ली ही में पैदा हुआ था और ता’लीम उसने वहीं हासिल की थी।

    हमारे सामने के फ़्लैट में मिस्टर खेशवाला रहता था। ये भी पारसी था। उसी के ज़रिये से हमने डाक्टर कापड़िया को बुलाया था। तीन-चार मर्तबा हमारे यहां आया तो उससे हमारे तअ’ल्लुक़ात बढ़ गए। डाक्टर के हाँ मेरा और मेरी बीवी का आना-जाना शुरू हो गया। इसके बाद डाक्टर ने हमारी मुलाक़ात अपने लड़के से कराई। उसका नाम सावक कापड़िया था।

    वो बहुत ही मिलनसार आदमी था। रंग बेहद ज़र्द, ऐसा लगता था कि उसमें ख़ून है ही नहीं। सिंगर मशीन कंपनी में मुलाज़िम था। ग़ालिबन पाँच-छः सौ रुपये माहवार पाता था। बहुत साफ़-सुथरा रहता था। उसका घर जो हमारे घर से कुछ फ़ासले पर था, बहुत नफ़ासत से सजा हुआ था। मजाल है कि गर्द-ओ-ग़ुबार का एक ज़र्रा भी कहीं नज़र जाए।

    जब मैं और मेरी बीवी शाम को उनके हाँ जाते तो वो उसकी बीवी ख़ुरशीद जिसको पारसियों की ज़बान में ख़ुरशट कहा जाता था, बड़े तपाक से पेश आते और हमारी ख़ूब ख़ातिर-तवाज़ो करते।

    ख़ुरशीद यानी ख़ुरशट लंबे क़द की औरत थी। आम पारसियों की तरह उसकी नाक बदनुमा नहीं थी, लेकिन ख़ूबसूरत भी नहीं। मोटी पकोड़ा ऐसी नाक थी, लेकिन रंग सफ़ेद था, इसलिए गवारा हो गई थी। बाल कटे हुए थे। चेहरा गोल था। ख़ुशपोश थी इसलिए अच्छी लगती थी। मेरी बीवी से चंद मुलाक़ातों ही में दोस्ती हो गई। चुनांचे हम उनके हाँ अक्सर जाने लगे। वो दोनों मियां-बीवी भी हर दूसरे-तीसरे रोज़ हमारे हाँ आजाते थे और देर तक बैठे रहते थे।

    हम जब भी सावक के हाँ गए, एक सिख को उनके हाँ देखा। ये सिख एक तनोमंद आदमी था। बहुत ख़ुश खल्क़। सावक ने मुझे बताया कि सरदार ज़ोर आवर सिंह उसका बचपन का दोस्त है। दोनों इकट्ठे पढ़ते थे। एक साथ उन्होंने बी.ए. पास किया। लेकिन शक्ल-ओ-सूरत के ए’तबार से सरदार ज़ोर आवर सिंह, सावक के मुक़ाबले में ज़्यादा मुअ’म्मर नज़र आता था। सावक शायद ख़ून की कमी के बाइ’स बहुत ही छोटा मालूम होता था। ऐसा लगता था कि उसकी उम्र अठ्ठारह बरस से ज़्यादा नहीं, लेकिन सरदार ज़ोर आवर सिंह चालीस के ऊपर मालूम होता था।

    सरदार ज़ोर आवर सिंह कुँवारा था। जंग का ज़माना था। उसने गवर्मेन्ट से कई ठेके ले रखे थे। उस का बाप बहुत पुराना गवर्मेन्ट कंट्रैक्टर था, लेकिन बाप बेटे में बनती नहीं थी। सरदार ज़ोर आवर सिंह आज़ाद ख़याल था लेकिन वो अपने बाप ही के साथ रहता था पर वो एक दूसरे से बात नहीं करते थे। अलबत्ता उसकी माँ उससे बहुत प्यार करती थी जैसे वो छोटा सा बच्चा है। उसकी वजह ये थी कि वो माँ का इकलौता लड़का था। तीन लड़कियां थीं, वो अपने घर में आबाद हो चुकी थीं। अब उसकी ख़्वाहिश थी कि वो शादी कर ले और उसके कलेजे को ठंडक पहुंचाए, मगर वह उसके मुतअ’ल्लिक़ बात करने के लिए तैयार ही नहीं था।

    मैंने एक दफ़ा उससे दरयाफ़्त किया, “सरदार साहब, आप शादी क्यों नहीं करते?”

    उसने मूंछों के अंदर हंस कर जवाब दिया, “इतनी जल्दी क्या है?”

    मैंने पूछा, “आप की उम्र क्या है?”

    उसने कहा, “आपका क्या ख़याल है?”

    “मेरे ख़याल के मुताबिक़ आपकी उम्र ग़ालिबन चालीस बरस होगी।”

    सरदार ज़ोर आवर सिंह मुस्कुराया, “आपका अंदाज़ा ग़लत है।”

    “आप फ़रमाईए, आपकी उम्र क्या है?”

    सरदार ज़ोर आवर सिंह फिर मुस्कुराया, “मैं आपसे बहुत छोटा हूँ… उम्र के लिहाज़ से भी… मैं अभी परसों उन्तीस अगस्त को पच्चीस बरस का हुआ हूँ।”

    मैंने अपने ग़लत अंदाज़े की माफ़ी चाही, “लेकिन आपकी शक्ल-सूरत से जहां तक मैं समझता हूँ, कोई भी ये नहीं कह सकता कि आपकी उम्र पच्चीस बरस है।”

    सरदार ज़ोर आवर सिंह हँसा, “मैं सिख हूँ... और बड़ा ग़ैरमामूली सिख।”ये कह कर उसने ग़ौर से मुझे देखा, “मंटो साहब, आप हजामत क्यों नहीं कराते। इतने बड़े बालों से आपको वहशत नहीं होती।”

    मैंने गर्दन पर हाथ फेरा। बाल वाक़ई बहुत बढ़े हुए थे। ग़ालिबन तीन महीने हो गए थे, जब मैंने बाल कटवाए थे। सरदार ज़ोर आवर सिंह ने बात की तो मुझे सर पर एक बोझ सा महसूस हुआ। “याद ही नहीं रहा। अब आपने कहा है तो मुझे वहशत महसूस हुई है। ख़ुदा मालूम मुझे क्यों बाल कटवाने याद नहीं रहते, ये सिलसिला है ही कुछ वाहियात। एक घंटा नाई के सामने सर न्यौढ़ाये बैठे रहो। वो अपनी ख़ुराफ़ात बकता रहे और आप मजबूरन कान समेटे सुनते रहें। फ़लां ऐक्ट्रस ऐसी है, फ़लां ऐक्ट्रस वैसी है। अमरीका ने ऐटम बम ईजाद कर लिया है। रूस के पास इसका बहुत ही तगड़ा जवाब मौजूद है। ये इटली कौन है...? और वो मुसोलिनी कहाँ गया? अब मैं अगर उससे कहूं कि जहन्नम में गया है तो वो ज़रूर पूछता कि साहब कैसे गया, किस रास्ते से गया। कौन से जहन्नम में गया।”

    मेरी इतनी लंबी चौड़ी बात सुन कर सरदार ज़ोर आवर सिंह ने अपनी सफ़ेद पगड़ी उतारी... मुझे सख़्त हैरत हुई। इसलिए कि उसके केस नदारद थे। उनके बजाय हल्के ख़सख़सी बाल थे। लेकिन वो पगड़ी कुछ इस अंदाज़ से बांधता था कि मालूम होता था कि उसके केस हैं और साबित-ओ-सालिम हैं।

    बड़ी सफ़ाई से पगड़ी उतार कर उसने मेरी तिपाई पर रखी और मुस्कुरा कर कहा, “मैं तो इससे बड़े बाल कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता”।

    मैंने उसके बालों के मुतअ’ल्लिक़ कोई बात की, इसलिए कि मैंने मुनासिब ख़याल किया। उसने भी उनके मुतअ’ल्लिक़ कोई बात छेड़ी। पगड़ी तिपाई पर रख देने के बाद उसने सिर्फ़ इतना कहा था, “मैं तो इससे बड़े बाल कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता।”इसके बाद उसने गुफ़्तुगू का मौज़ू बदल दिया और कहा, “मंटो साहब, ख़ुरशीद के लिए आप कुछ कीजिए?”

    मैं कुछ समझा, “कौन ख़ुरशीद?”

    सरदार ज़ोर आवर सिंह ने पगड़ी उठा कर अपने सर पर रख ली, “ख़ुरशीद कापड़िया के लिए।”

    “मैं उनकी क्या ख़िदमत कर सकता हूँ?”

    “उसको गाने का बहुत शौक़ है।”

    “मुझे मालूम नहीं था कि ख़ुरशट गाती है, “कैसा गाती हैं?”

    सरदार ज़ोर आवर सिंह ने ख़ुरशट की गाइकी के बारे में इतनी तारीफ़ की कि मुझे ये सब मुबालग़ा मालूम हुआ, “मंटो साहब, बहुत अच्छी आवाज़ पाई है। ख़ुसूसन ठुमरी ऐसी अच्छी गाती है कि आप वज्द में आजाऐंगे। आपको ऐसा मालूम होगा कि ख़ान साहब अब्दुलकरीम को सुन रहे हैं और लुत्फ़ ये कि ख़ुरशीद ने किसी की शागिर्दी नहीं की... बस जो मिला है क़ुदरत से मिला है। आप आज शाम को आईए... मिसेज़ मंटो भी ज़रूर तशरीफ़ लाएं। मैं ख़ुरशीद को बुलाऊंगा, आप ज़रा उसे सुनिएगा।”

    मैंने कहा, ज़रूर, ज़रूर… मुझे मालूम नहीं था कि वो गाती हैं।”

    सरदार ज़ोर आवर सिंह ने सिफ़ारिश के तौर पर कहा, “आप रेडियो स्टेशन में हैं। मैं चाहता हूँ कि ख़ुरशीद को हर महीने कुछ प्रोग्राम मिल जाया करें। रुपये की उसको कोई ख़्वाहिश नहीं है।”

    “लेकिन अगर उनको प्रोग्राम मिलेगा तो मुआवज़ा भी ज़रूर मिलेगा। गर्वनमेंट उनका मुआवज़ा किस खाते में डालेगी?”

    ये सुन कर सरदार ज़ोर आवर सिंह मुस्कुराया, “तो ठीक है, लेकिन उसे प्रोग्राम ज़रूर दिलवाईएगा... मुझे यक़ीन है कि सुनने वाले उसे बहुत पसंद करेंगे।”

    इस गुफ़्तुगू के बाद हम तीसरे रोज़ सावक के हाँ गए। वो मौजूद नहीं था लेकिन ड्राइंगरूम में सरदार ज़ोर आवर सिंह बैठा सिगरेट पी रहा था। पारसियों में सिगरेट पीना मना है, सिख भी सिगरेट नहीं पीते, लेकिन वो बड़े इतमीनान और ठाट से कश पे कश ले रहा था। मैं और मेरी बीवी कमरे में दाख़िल हुए तो उसने सिगरट पीना बंद कर दिया। ऐश ट्रे में उसकी गर्दन मरोड़ कर उसने हमें ख़ालिस इस्लामी अंदाज़ में सलाम किया और कहा, “ख़ुरशीद की तबीयत आज कुछ नासाज़ है।”

    ख़ुरशीद कुछ देर के बाद आई तो मैंने महसूस किया कि उसकी तबीयत क़तअ’न नासाज़ नहीं है। मैंने उससे पूछा तो उसने अपने मोटे होंटों पर मुस्कुराहट पैदा करके कहा, “ज़रा ज़ुकाम था।”

    मगर उसको ज़ुकाम नहीं था। सरदार ज़ोर आवर सिंह ने बड़े ज़ोरदार अंदाज़ में ख़ुरशीद से उसका हाल पूछा, ज़ुकाम के लिए कम अज़ कम दस दवाएं तजवीज़ कीं, पाँच डाक्टरों के हवाले दिए,मगर वो ख़ामोश रही, जैसे वो इस क़िस्म की बकवास सुनने की आदी है। इतने में ख़ुरशीद का ख़ाविंद सावक कापड़िया आगया। दफ़्तर में काम की ज़्यादती की वजह से उसे देर हो गई थी। मुझसे और मेरी बीवी से उसने मा’ज़रत चाही, सरदार ज़ोर आवर सिंह से कुछ देर मज़ाक़ किया और हमसे चंद मिनट की रुख़सत लेकर अन्दर चला गया, इसलिए कि उसे अपनी बच्ची को देखना था।

    उसकी पलौठी की बच्ची बहुत प्यारी थी। मियां-बीवी की बस यही एक औलाद थी।

    क़रीबन डेढ़ साल की थी। रंग बाप की तरह ज़र्द... कुछ नक़्श माँ पर थे। बाक़ी मालूम नहीं किसके थे। बहुत हँसमुख थी। सावक उसको गोद में उठा कर लाया और हमारे पास बैठ गया। उसको अपनी बच्ची से बेहद प्यार था। दफ़्तर से वापस आकर वो सारा वक़्त उसके साथ खेलता रहता। मेरा ख़याल है क़रीब-क़रीब हर हफ़्ते वो उसके लिए खिलौने लाता था। शीशों वाली बड़ी अलमारी थी जो इन खिलौनों से भरी हुई थी।

    सरदार ज़ोर आवर सिंह के मुतअ’ल्लिक़ बात छिड़ी तो सावक ने उसकी बहुत तारीफ़ की। उसने मुझ से और मेरी बीवी से कहा, “सरदार ज़ोर आवर मेरा बहुत पुराना दोस्त है। हम दोनों लंगोटिए हैं। उस के वालिद साहब और मेरे वालिद साहब इसी तरह लंगोटिए थे। दोनों इकट्ठे पढ़ा करते थे। पहली जमाअ’त से लेकर अब तक हम दोनों हर रोज़ एक दूसरे से मिलते रहे हैं। बा’ज़ औक़ात तो मुझे ऐसा महसूस होता कि हम स्कूल ही में पढ़ रहे हैं।”

    सरदार ज़ोर आवर सिंह मुस्कुराता रहा। उसके सर पर सिखों की बहुत बड़ी पगड़ी थी, मगर मुझे उस के होते हुए उसके सर की ख़सख़सी बाल नज़र आरहे थे और मुझे अपने सर पर अपने बालों का बोझ महसूस होरहा था।

    सरदार ज़ोर आवर सिंह के पैहम इसरार पर ख़ुरशीद ने बाजा मंगा कर हमें गाना सुनाया। वो कन सुरी थी, लेकिन ख़ुरशीद, उसके ख़ाविंद, और सरदार ज़ोर आवर सिंह की ख़ातिर मुझे उसके गाने की मजबूरन तारीफ़ करना पड़ी। मैंने सिर्फ़ इतना कहा, “माशा अल्लाह आप ख़ूब गाती हैं।”

    सरदार ज़ोर आवर सिंह ने बड़े ज़ोर से ताली बजाई और कहा, “ख़ुरशीद, आज तो तुमने कमाल कर दिया है।”फिर मुझसे मुख़ातिब हुआ, “इसको आफ़ताब-ए-मूसीक़ी का ख़िताब मिल चुका है मंटो साहब।”

    मैंने तो कुछ कहा, लेकिन मेरी बीवी ने पूछा, “कब?”

    सरदार ज़ोर आवर सिंह ने कहा, “अख़बार का वो कटिंग लाना।”

    ख़ुरशीद अख़बार का कटिंग लाई। कोई ख़ुशामदी क़िस्म का रिपोर्टर था जिसने छः महीने पहले एक प्राईवेट महफ़िल में ख़ुरशीद का गाना सुनकर उसे आफ़ताब-ए-मूसीक़ी का ख़िताब अ’ता फ़रमाया था। मैं ये कटिंग पढ़ कर मुस्कुराया और शरारतन ख़ुरशीद से कहा, “आपका ये ख़िताब ग़लत है!”

    सरदार ज़ोर आवर सिंह ने मुझसे पूछा, “क्यों?”

    मैंने फिर शरारतन कहा, “औरत के लिए आफ़ताब नहीं… आफ़ताबा होना चाहिए। ख़ुरशीद साहिबा, आफ़ताब-ए-मूसीक़ी नहीं। आफ़ताबा-ए-मूसीक़ी हैं।”

    मेरा मज़ाक़ सबके सर पर से गुज़र गया। मैंने ख़ुदा का शुक्र किया, क्योंकि ये मज़ाक़ करने के बाद मैंने फ़ौरन ही सोचा था कि और कोई नहीं तो सरदार ज़ोर आवर सिंह ज़रूर उसको समझ जाएगा, मगर वो मुस्कुराया, “ये अख़बार वाले हमेशा ग़लत ज़बान लिखते हैं। आफ़ताब की जगह आफ़ताबा होना चाहिए था। आप बिल्कुल सही फ़रमाते हैं।”

    मैंने और कुछ कहा, इसलिए कि मुझे एहसास था कि कहीं मेरा मज़ाक़ फ़ाश हो जाये।

    सावक कुछ और ही ख़यालात में ग़र्क़ था। उसको सरदार ज़ोर आवर सिंह की दोस्ती के वाक़ियात याद आरहे थे, “मिस्टर मंटो, ऐसा दोस्त मुझे कभी नहीं मिलेगा। इसने हमेशा मेरी मदद की है। हमेशा मेरे साथ इंतिहाई ख़ुलूस बरता है। पिछले दिनों मैं हस्पताल में बीमार था। इसने नर्सों से बढ़ कर मेरी ख़िदमत की। मेरे घर-बार का ख़याल रखा। ख़ुरशीद अकेली घबरा जाती, मगर इसने हर तरह इसकी दिलजोई की। मेरी बच्ची को घंटों खिलाता रहा। इसके अलावा मेरे पास बैठ कर कई अख़बार पढ़ कर सुनाता रहा। मैं इसका शुक्रिया अदा नहीं कर सकता।”

    ये सुन कर सरदार ज़ोर आवर सिंह मुस्कुराया और ख़ुरशीद से मुख़ातिब हुआ, “ख़ुरशीद, आज तुम्हारा ख़ाविंद बहुत सेंटीमेंटल होरहा है... मैंने क्या किया था जो ये मेरी इतनी तारीफ़ कर रहा है।”

    सावक ने कहा, “बकवास करो… तुम्हारी तारीफ़ मैं कर ही नहीं सकता। मैं सिर्फ़ इतना कह सकता हूँ कि तुम्हारी दोस्ती पर मुझे नाज़ है और हमेशा रहेगा। बचपन से लेकर अब तक तुम एक से रहे हो। मेरे साथ तुम्हारे सुलूक में कभी फ़र्क़ नहीं आया।”

    मैंने सरदार ज़ोर आवर सिंह की तरफ़ देखा। वो ये तारीफ़ी कलमात यूं सुन रहा था, जैसे रेडियो से ख़बरें। जब सावक बोल चुका तो उसने मुझसे पूछा, “तो ख़ुरशीद को प्रोग्राम मिल जाऐंगे ना?”

    मैंने चौंक कर जवाब दिया, “जी...? मैं कोशिश करूंगा।”

    सरदार ज़ोर आवर सिंह ने ज़रा हैरत से कहा, “कोशिश? या’नी इनके लिए प्रोग्राम हासिल करने के लिए आपको कोशिश करनी पड़ेगी। आप भी कमाल करते हैं… कल सुबह उनको अपने साथ ले जाईए। मेरा ख़याल है इनका गाना सुनते ही म्यूज़िक डायरेक्टर इसी महीने में इनको कम अज़ कम दो प्रोग्राम दे देगा।”

    मैंने उसकी दिल शिकनी मुनासिब समझी और कहा, “यक़ीनन।”

    लेकिन ख़ुरशीद ने सरदार ज़ोर आवर से कहा, “मैं सुबह नहीं जा सकती। बेबी सुबह को मेरे बगै़र घर में नहीं रह सकती। दोपहर को अलबत्ता जा सकती हूँ।”

    सरदार ज़ोर आवर सिंह मुझसे मुख़ातिब हुआ, “मंटो साहब, वाक़ई बच्ची इसको सुबह बहुत तंग करती है। मैं किसी रोज़ ख़ुरशीद को दोपहर के वक़्त रेडियो स्टेशन ले आऊँगा।”

    ख़ुरशीद को दोपहर के वक़्त रेडियो स्टेशन लाने की नौबत आई क्योंकि मैंने दूसरे रोज़ ही एक दम इरादा किया कि मैं दिल्ली छोड़कर बंबई चला जाऊंगा। चुनांचे मैं उससे अगले दिन इस्तीफ़ा दे कर बंबई रवाना हो गया। मेरी बीवी मुझसे कुछ दिन बाद चली आई। हम मिसेज़ ख़ुरशट कापड़िया और सरदार ज़ोर आवर सिंह को भूल गए।

    मैं एक फ़िल्म कंपनी में मुलाज़िम था। बीमारी के बाइ’स इत्तफ़ाक़ से एक रोज़ मैं वहां गया। दूसरे रोज़ वहां पहुंचा तो गेटकीपर ने मुझे एक काग़ज़ दिया कि कल एक साहब आपसे मिलने यहां आए थे। वो ये दे गए हैं। मैंने रुक़्क़ा पढ़ा। सरदार ज़ोर आवर सिंह का था। मुख़्तसर सी तहरीर थी, “मैं और मेरी बीवी आपसे मिलने यहां आए, मगर आप मौजूद नहीं थे... हम ताज होटल में ठहरे हैं... अगर आप तशरीफ़ लाएं तो हमें बड़ी ख़ुशी होगी... मिसेज़ मंटो को ज़रूर साथ लाईएगा।”

    कमरे का नंबर वग़ैरा दर्ज था। मैं और मेरी बीवी उसी शाम टैक्सी में ताज होटल गए। कमरा तलाश करने में कोई दिक़्क़त हुई। सरदार ज़ोर आवर सिंह वहां मौजूद था। हम जब अंदर कमरे में दाख़िल हुए तो वो अपने छोटे छोटे ख़सख़सी बालों में कंघी कर रहा था। बड़े तपाक से मिला। मेरी बीवी उसकी बीवी को देखने के लिए बेक़रार थी, चुनांचे उसने पूछा, “सरदार साहब, आपकी मिसेज़ कहाँ हैं?”

    सरदार ज़ोर आवर सिंह मुस्कुराया, “अभी आती हैं… बाथरूम में हैं।”

    उसने ये कहा और दूसरे कमरे से ख़ुरशट नुमूदार हुई। मेरी बीवी उठ कर उससे गले मिली और सब से पहला सवाल उससे ये किया, “बच्ची कैसी है ख़ुरशीद?”

    ख़ुरशट ने जवाब दिया, “अच्छी है।”

    फिर मेरी बीवी ने उससे पूछा, “सावक कहाँ हैं?”

    ख़ुरशट ने कोई जवाब दिया। जब वो और मेरी बीवी पास पास बैठ गईं तो मैंने सरदार ज़ोर आवर सिंह से पूछा, “सरदार साहब, आप अपनी बीवी को तो बाहर निकालिये।”

    सरदार ज़ोर आवर सिंह मुस्कुराया, ख़ुरशट की तरफ़ देख कर उसने कहा, “ख़ुरशीद मेरी बीवी को बाहर निकालो।”

    ख़ुरशट मेरी बीवी से मुख़ातिब हो कर मुस्कराईं, “मैंने सरदार ज़ोर आवर सिंह से शादी करली है। हम यहां हनीमून मनाने आए हैं।”

    मेरी बीवी ने ये सुना तो उसकी समझ में कुछ आया कि क्या कहे। उठी और मेरा हाथ पकड़ कर कहा, “चलिए सआदत साहब…” और हम कमरे से बाहर थे। ख़ुदा मालूम सरदार ज़ोर आवर सिंह और ख़ुरशट ने हमारी इस बदतमीज़ी के मुतअ’ल्लिक़ क्या कहा होगा।

    स्रोत:

    ٹھنڈا گوشت

      • प्रकाशन वर्ष: 1950

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