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परवीन शाकिर - शायरी में निस्वानी जज़्बात का इज़्हार

परवीन शाकिर की शायरी नारीवादी भावनाओं से भरी हुई है और उस में उन के जीवन की त्रासदियों का उल्लेख भी मिलता है, आप इस संग्रह को पढ़कर उनके विचारों का नमूना देख सकते हैं।

अक्स-ए-ख़ुशबू हूँ बिखरने से रोके कोई

और बिखर जाऊँ तो मुझ को समेटे कोई

परवीन शाकिर

कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तिरा ख़याल भी

दिल को ख़ुशी के साथ साथ होता रहा मलाल भी

परवीन शाकिर

अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं

अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई

परवीन शाकिर

बदन के कर्ब को वो भी समझ पाएगा

मैं दिल में रोऊँगी आँखों में मुस्कुराऊँगी

परवीन शाकिर

हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानाँ

दो घड़ी की चाहत में लड़कियाँ नहीं खुलतीं

परवीन शाकिर

तितलियाँ पकड़ने में दूर तक निकल जाना

कितना अच्छा लगता है फूल जैसे बच्चों पर

परवीन शाकिर

मैं फूल चुनती रही और मुझे ख़बर हुई

वो शख़्स के मिरे शहर से चला भी गया

परवीन शाकिर

मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी

वो झूट बोलेगा और ला-जवाब कर देगा

परवीन शाकिर

बस ये हुआ कि उस ने तकल्लुफ़ से बात की

और हम ने रोते रोते दुपट्टे भिगो लिए

परवीन शाकिर

कुछ तो तिरे मौसम ही मुझे रास कम आए

और कुछ मिरी मिट्टी में बग़ावत भी बहुत थी

परवीन शाकिर

इतने घने बादल के पीछे

कितना तन्हा होगा चाँद

परवीन शाकिर

वो मुझ को छोड़ के जिस आदमी के पास गया

बराबरी का भी होता तो सब्र जाता

परवीन शाकिर

लड़कियों के दुख अजब होते हैं सुख उस से अजीब

हँस रही हैं और काजल भीगता है साथ साथ

परवीन शाकिर

बंद कर के मिरी आँखें वो शरारत से हँसे

बूझे जाने का मैं हर रोज़ तमाशा देखूँ

परवीन शाकिर

यही वो दिन थे जब इक दूसरे को पाया था

हमारी साल-गिरह ठीक अब के माह में है

परवीन शाकिर

एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा

आँख हैरान है क्या शख़्स ज़माने से उठा

परवीन शाकिर

सिर्फ़ इस तकब्बुर में उस ने मुझ को जीता था

ज़िक्र हो उस का भी कल को ना-रसाओं में

परवीन शाकिर

जिस तरह ख़्वाब मिरे हो गए रेज़ा रेज़ा

उस तरह से कभी टूट के बिखरे कोई

परवीन शाकिर

उस ने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा

रूह तक गई तासीर मसीहाई की

परवीन शाकिर

ये हवा कैसे उड़ा ले गई आँचल मेरा

यूँ सताने की तो आदत मिरे घनश्याम की थी

परवीन शाकिर
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