Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर
Saleem Kausar's Photo'

पाकिस्तान के चर्चित शायर। अपनी ग़ज़ल ' मैं ख़याल हूँ किसी और का ' के लिए मशहूर।

पाकिस्तान के चर्चित शायर। अपनी ग़ज़ल ' मैं ख़याल हूँ किसी और का ' के लिए मशहूर।

सलीम कौसर के शेर

19.5K
Favorite

श्रेणीबद्ध करें

क़ुर्बतें होते हुए भी फ़ासलों में क़ैद हैं

कितनी आज़ादी से हम अपनी हदों में क़ैद हैं

कहानी लिखते हुए दास्ताँ सुनाते हुए

वो सो गया है मुझे ख़्वाब से जगाते हुए

और इस से पहले कि साबित हो जुर्म-ए-ख़ामोशी

हम अपनी राय का इज़हार करना चाहते हैं

मैं ख़याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है

सर-ए-आईना मिरा अक्स है पस-ए-आईना कोई और है

हम ने तो ख़ुद से इंतिक़ाम लिया

तुम ने क्या सोच कर मोहब्बत की

आईना ख़ुद भी सँवरता था हमारी ख़ातिर

हम तिरे वास्ते तय्यार हुआ करते थे

वक़्त रुक रुक के जिन्हें देखता रहता है 'सलीम'

ये कभी वक़्त की रफ़्तार हुआ करते थे

पुकारते हैं उन्हें साहिलों के सन्नाटे

जो लोग डूब गए कश्तियाँ बनाते हुए

दुनिया अच्छी भी नहीं लगती हम ऐसों को 'सलीम'

और दुनिया से किनारा भी नहीं हो सकता

कभी इश्क़ करो और फिर देखो इस आग में जलते रहने से

कभी दिल पर आँच नहीं आती कभी रंग ख़राब नहीं होता

मुझे सँभालने में इतनी एहतियात कर

बिखर जाऊँ कहीं मैं तिरी हिफ़ाज़त में

तुझे दुश्मनों की ख़बर थी मुझे दोस्तों का पता नहीं

तिरी दास्ताँ कोई और थी मिरा वाक़िआ कोई और है

रात को रात ही इस बार कहा है हम ने

हम ने इस बार भी तौहीन-ए-अदालत नहीं की

तुम ने सच बोलने की जुरअत की

ये भी तौहीन है अदालत की

देखते कुछ हैं दिखाते हमें कुछ हैं कि यहाँ

कोई रिश्ता ही नहीं ख़्वाब का ताबीर के साथ

बहुत दिनों में कहीं हिज्र-ए-माह-ओ-साल के बाद

रुका हुआ है ज़माना तिरे विसाल के बाद

ये लोग इश्क़ में सच्चे नहीं हैं वर्ना हिज्र

इब्तिदा कहीं इंतिहा में आता है

तमाम उम्र सितारे तलाश करता फिरा

पलट के देखा तो महताब मेरे सामने था

क्या अजब कार-ए-तहय्युर है सुपुर्द-ए-नार-ए-इश्क़

घर में जो था बच गया और जो नहीं था जल गया

'सलीम' अब तक किसी को बद-दुआ दी तो नहीं लेकिन

हमेशा ख़ुश रहे जिस ने हमारा दिल दुखाया है

कुछ इस तरह से वो शामिल हुआ कहानी में

कि इस के बाद जो किरदार था फ़साना हुआ

मिरे चारागर तिरे बस में नहीं मोआमला

सूरत-ए-हाल के लिए वाक़िफ़-ए-हाल चाहिए

मैं किसी के दस्त-ए-तलब में हूँ तो किसी के हर्फ़-ए-दुआ में हूँ

मैं नसीब हूँ किसी और का मुझे माँगता कोई और है

ख़ामोश सही मरकज़ी किरदार तो हम थे

फिर कैसे भला तेरी कहानी से निकलते

वो जिन के नक़्श-ए-क़दम देखने में आते हैं

अब ऐसे लोग तो कम देखने में आते हैं

मोहब्बत अपने लिए जिन को मुंतख़ब कर ले

वो लोग मर के भी मरते नहीं मोहब्बत में

साँस लेने से भी भरता नहीं सीने का ख़ला

जाने क्या शय है जो बे-दख़्ल हुई है मुझ में

क़दमों में साए की तरह रौंदे गए हैं हम

हम से ज़ियादा तेरा तलबगार कौन है

अजनबी हैरान मत होना कि दर खुलता नहीं

जो यहाँ आबाद हैं उन पर भी घर खुलता नहीं

तुम तो कहते थे कि सब क़ैदी रिहाई पा गए

फिर पस-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ रात-भर रोता है कौन

याद का ज़ख़्म भी हम तुझ को नहीं दे सकते

देख किस आलम-ए-ग़ुर्बत में मिले हैं तुझ से

अब जो लहर है पल भर बाद नहीं होगी यानी

इक दरिया में दूसरी बार उतरा नहीं जा सकता

दस्त-ए-दुआ को कासा-ए-साइल समझते हो

तुम दोस्त हो तो क्यूँ नहीं मुश्किल समझते हो

ज़ोरों पे 'सलीम' अब के है नफ़रत का बहाव

जो बच के निकल आएगा तैराक वही है

इंतिज़ार और दस्तकों के दरमियाँ कटती है उम्र

इतनी आसानी से तो बाब-ए-हुनर खुलता नहीं

साए गली में जागते रहते हैं रात भर

तन्हाइयों की ओट से झाँका कर मुझे

मैं जानता हूँ मकीनों की ख़ामुशी का सबब

मकाँ से पहले दर-ओ-बाम से मिला हूँ मैं

एक तरफ़ तिरे हुस्न की हैरत एक तरफ़ दुनिया

और दुनिया में देर तलक ठहरा नहीं जा सकता

अभी हैरत ज़ियादा और उजाला कम रहेगा

ग़ज़ल में अब के भी तेरा हवाला कम रहेगा

अहल-ए-ख़िरद को आज भी अपने यक़ीन के लिए

जिस की मिसाल ही नहीं उस की मिसाल चाहिए

भला वो हुस्न किस की दस्तरस में सका है

कि सारी उम्र भी लिक्खें मक़ाला कम रहेगा

मिरी रौशनी तिरे ख़द्द-ओ-ख़ाल से मुख़्तलिफ़ तो नहीं मगर

तू क़रीब तुझे देख लूँ तू वही है या कोई और है

जुदाई भी होती ज़िंदगी भी सहल हो जाती

जो हम इक दूसरे से मसअला तब्दील कर लेते

तू ने देखा नहीं इक शख़्स के जाने से 'सलीम'

इस भरे शहर की जो शक्ल हुई है मुझ में

मैं ने जो लिख दिया वो ख़ुद है गवाही अपनी

जो नहीं लिक्खा अभी उस की बशारत दूँगा

जो मिरी रियाज़त-ए-नीम-शब को 'सलीम' सुब्ह मिल सकी

तो फिर इस के मअ'नी तो ये हुए कि यहाँ ख़ुदा कोई और है

कैसे हंगामा-ए-फ़ुर्सत में मिले हैं तुझ से

हम भरे शहर की ख़ल्वत में मिले हैं तुझ से

ये आग लगने से पहले की बाज़-गश्त है जो

बुझाने वालों को अब तक धुआँ बुलाता है

मैं उसे तुझ से मिला देता मगर दिल मेरे

मेरे कुछ काम नहीं आए वसाइल मेरे

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

Get Tickets
बोलिए