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Qamar Jalalvi's Photo'

क़मर जलालवी

1887 - 1968 | कराची, पाकिस्तान

पाकिस्तान के उस्ताद शायर, कई लोकप्रिय शेरों के रचयिता।

पाकिस्तान के उस्ताद शायर, कई लोकप्रिय शेरों के रचयिता।

क़मर जलालवी के शेर

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नशेमन ख़ाक होने से वो सदमा दिल को पहुँचा है

कि अब हम से कोई भी रौशनी देखी नहीं जाती

ऐसे में वो हों बाग़ हो साक़ी हो 'क़मर'

लग जाएँ चार चाँद शब-ए-माहताब में

रौशन है मेरा नाम बड़ा नामवर हूँ मैं

शाहिद हैं आसमाँ के सितारे क़मर हूँ मैं

जिगर का दाग़ छुपाओ 'क़मर' ख़ुदा के लिए

सितारे टूटते हैं उन के दीदा-ए-नम से

नज़'अ की और भी तकलीफ़ बढ़ा दी तुम ने

कुछ बन आया तो आवाज़ सुना दी तुम ने

आएँ हैं वो मज़ार पे घूँघट उतार के

मुझ से नसीब अच्छे है मेरे मज़ार के

इस लिए आरज़ू छुपाई है

मुँह से निकली हुई पराई है

हर वक़्त महवियत है यही सोचता हूँ मैं

क्यूँ बर्क़ ने जलाया मिरा आशियाँ पूछ

मुद्दतें हुईं अब तो जल के आशियाँ अपना

आज तक ये आलम है रौशनी से डरता हूँ

वो चार चाँद फ़लक को लगा चला हूँ 'क़मर'

कि मेरे बा'द सितारे कहेंगे अफ़्साने

ज़ब्त करता हूँ तो घुटता है क़फ़स में मिरा दम

आह करता हूँ तो सय्याद ख़फ़ा होता है

जाती हुई मय्यत देख के भी वल्लाह तुम उठ कर सके

दो चार क़दम तो दुश्मन भी तकलीफ़ गवारा करते हैं

'क़मर' किसी से भी दिल का इलाज हो सका

हम अपना दाग़ दिखाते रहे ज़माने को

यही है गर ख़ुशी तो रात भर गिनते रहो तारे

'क़मर' इस चाँदनी में उन का अब आना तो क्या होगा

ज़रा रूठ जाने पे इतनी ख़ुशामद

'क़मर' तुम बिगाड़ोगे आदत किसी की

'क़मर' ज़रा भी नहीं तुम को ख़ौफ़-ए-रुस्वाई

चले हो चाँदनी शब में उन्हें बुलाने को

मुझे मेरे मिटने का ग़म है तो ये है

तुम्हें बेवफ़ा कह रहा है ज़माना

जल्वा-गर बज़्म-ए-हसीनाँ में हैं वो इस शान से

चाँद जैसे 'क़मर' तारों भरी महफ़िल में है

रोएँगे देख कर सब बिस्तर की हर शिकन को

वो हाल लिख चला हूँ करवट बदल बदल कर

पूछो अरक़ रुख़्सारों से रंगीनी-ए-हुस्न को बढ़ने दो

सुनते हैं कि शबनम के क़तरे फूलों को निखारा करते हैं

हो रिहाई क़फ़स से अगर नहीं होती

निगाह-ए-शौक़ तो बे-बाल-ओ-पर नहीं होती

अभी बाक़ी हैं पत्तों पर जले तिनकों की तहरीरें

ये वो तारीख़ है बिजली गिरी थी जब गुलिस्ताँ पर

अगर जाए पहलू में 'क़मर' वो माह-ए-कामिल भी

दो आलम जगमगा उट्ठेंगे दोहरी चाँदनी होगी

बढ़ा बढ़ा के जफ़ाएँ झुका ही दोगे कमर

घटा घटा के 'क़मर' को हिलाल कर दोगे

तेरे क़ुर्बान 'क़मर' मुँह सर-ए-गुलज़ार खोल

सदक़े उस चाँद सी सूरत पे हो जाए बहार

शाम को आओगे तुम अच्छा अभी होती है शाम

गेसुओं को खोल दो सूरज छुपाने के लिए

दबा के क़ब्र में सब चल दिए दुआ सलाम

ज़रा सी देर में क्या हो गया ज़माने को

'क़मर' अपने दाग़-ए-दिल की वो कहानी मैं ने छेड़ी

कि सुना किए सितारे मिरा रात भर फ़साना

मैं उन सब में इक इम्तियाज़ी निशाँ हूँ फ़लक पर नुमायाँ हैं जितने सितारे

'क़मर' बज़्म-ए-अंजुम की मुझ को मयस्सर सदारत नहीं है तो फिर और क्या है

तुम में जो बात है वो बात नहीं आई है

क्या ये तस्वीर किसी और से खिंचवाई है

शुक्रिया क़ब्र तक पहुँचाने वालो शुक्रिया

अब अकेले ही चले जाएँगे इस मंज़िल से हम

शब को मिरा जनाज़ा जाएगा यूँ निकल कर

रह जाएँगे सहर को दुश्मन भी हाथ मल कर

ख़ून होता है सहर तक मिरे अरमानों का

शाम-ए-वा'दा जो वो पाबंद-ए-हिना होता है

रुस्वा करेगी देख के दुनिया मुझे 'क़मर'

इस चाँदनी में उन को बुलाने को जाए कौन

सुना है ग़ैर की महफ़िल में तुम जाओगे

कहो तो आज सजा लूँ ग़रीब-ख़ाने को

कभी कहा किसी से तिरे फ़साने को

जाने कैसे ख़बर हो गई ज़माने को

अब नज़अ का आलम है मुझ पर तुम अपनी मोहब्बत वापस लो

जब कश्ती डूबने लगती है तो बोझ उतारा करते हैं

अब आगे इस में तुम्हारा भी नाम आएगा

जो हुक्म हो तो यहीं छोड़ दूँ फ़साने को

'क़मर' अफ़्शाँ चुनी है रुख़ पे उस ने इस सलीक़े से

सितारे आसमाँ से देखने को आए जाते हैं

सुरमे का तिल बना के रुख़-ए-ला-जवाब में

नुक़्ता बढ़ा रहे हो ख़ुदा की किताब में

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