कशमकश पर शेर
अपनी फ़िक्र और सोच के
धारों से गुज़र कर कुल्ली तौर से किसी एक नतीजे तक पहुंचना एक ना-मुम्किन सा अमल होता है। हम हर लम्हा एक तज़-बज़ुब और एक तरह की कश-मकश के शिकार रहते हैं। ये तज़-बज़ुब और कशमकश ज़िंदगी के आम से मुआमलात से ले कर गहरे मज़हबी और फ़लसफ़ियाना अफ़्कार तक छाई हुई होती है। ईमाँ मुझे रोके हैं जो खींचे है मुझे कुफ़्र इस कश-मकश की सबसे वाज़ेह मिसाल है। हमारे इस इन्तिख़ाब में आपको कश्मकश की बेशुमार सूरतों को बहुत क़रीब से देखने, महसूस करने और जानने का मौक़ा मिलेगा।
इरादे बाँधता हूँ सोचता हूँ तोड़ देता हूँ
कहीं ऐसा न हो जाए कहीं ऐसा न हो जाए
फड़कूँ तो सर फटे है न फड़कूँ तो जी घटे
तंग इस क़दर दिया मुझे सय्याद ने क़फ़स
ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे
सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं
व्याख्या
अपने विषय की दृष्टि से ये काफ़ी दिलचस्प शे’र है। सौदा के मायने जुनून या पागलपन के है। चूँकि इश्क़ दिल से शुरू होता है और पागलपन पर खत्म होता है। इश्क़ में पागलपन की हालत तब होती है जब आशिक़ का अपने दिमाग़ पर वश नहीं होता है। इस शे’र में फ़िराक़ ने मानव मनोविज्ञान के एक नाज़ुक पहलू को विषय बनाया है। कहते हैं कि हालांकि मैंने मुहब्बत करना छोड़ दिया है। यानी मुहब्बत से किनारा किया है। मेरे दिमाग़ में अब पागलपन की स्थिति भी नहीं है, और मेरे दिल में अब महबूब की इच्छा भी नहीं। मगर इश्क़ कब पलट कर आजाए इस बात का कोई भरोसा नहीं। आदमी अपनी तरफ़ से यही कर सकता है कि बुद्धि को विकार से और दिल को इच्छाओं से दूर रखे मगर इश्क़ का कोई भरोसा नहीं कि कब फिर बेक़ाबू कर दे।
शफ़क़ सुपुरी
है अजब सी कश्मकश दिल में 'असर'
किस को भूलें किस को रक्खें याद हम
शौक़ कहता है पहुँच जाऊँ मैं अब काबे में जल्द
राह में बुत-ख़ाना पड़ता है इलाही क्या करूँ
ज़ब्त करता हूँ तो घुटता है क़फ़स में मिरा दम
आह करता हूँ तो सय्याद ख़फ़ा होता है
सवाल करती कई आँखें मुंतज़िर हैं यहाँ
जवाब आज भी हम सोच कर नहीं आए
ये किस अज़ाब में छोड़ा है तू ने इस दिल को
सुकून याद में तेरी न भूलने में क़रार
मुझे भी लम्हा-ए-हिजरत ने कर दिया तक़्सीम
निगाह घर की तरफ़ है क़दम सफ़र की तरफ़
इश्क़ भी हो हिजाब में हुस्न भी हो हिजाब में
या तो ख़ुद आश्कार हो या मुझे आश्कार कर