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ज़ेहरा निगाह के शेर
मैं तो अपने आप को उस दिन बहुत अच्छी लगी
वो जो थक कर देर से आया उसे कैसा लगा
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बस्ती में कुछ लोग निराले अब भी हैं
देखो ख़ाली दामन वाले अब भी हैं
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शाम ढले आहट की किरनें फूटी थीं
सूरज डूब के मेरे घर में निकला था
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टैग : आहट
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नहीं नहीं हमें अब तेरी जुस्तुजू भी नहीं
तुझे भी भूल गए हम तिरी ख़ुशी के लिए
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देखते देखते इक घर के रहने वाले
अपने अपने ख़ानों में बट जाते हैं
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जो दिल ने कही लब पे कहाँ आई है देखो
अब महफ़िल याराँ में भी तन्हाई है देखो
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ग़म अपने ही अश्कों का ख़रीदा हुआ है
दिल अपनी ही हालत का तमाशाई है देखो
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अब इस घर की आबादी मेहमानों पर है
कोई आ जाए तो वक़्त गुज़र जाता है
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टैग : तन्हाई
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एक के घर की ख़िदमत की और एक के दिल से मोहब्बत की
दोनों फ़र्ज़ निभा कर उस ने सारी उम्र इबादत की
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टैग : औरत
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इस शहर को रास आई हम जैसों की गुम-नामी
हम नाम बताते तो ये शहर भी जल जाता
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देखो वो भी हैं जो सब कह सकते थे
देखो उन के मुँह पर ताले अब भी हैं
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जो सुन सको तो ये सब दास्ताँ तुम्हारी है
हज़ार बार जताया मगर नहीं माने
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तारों को गर्दिशें मिलीं ज़र्रों को ताबिशें
ऐ रह-नवर्द राह-ए-जुनूँ तुझ को क्या मिला
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जीना है तो जी लेंगे बहर-तौर दिवाने
किस बात का ग़म है रसन-ओ-दार के होते
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औरत के ख़ुदा दो हैं हक़ीक़ी ओ मजाज़ी
पर उस के लिए कोई भी अच्छा नहीं होता
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टैग : औरत
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सुल्ह जिस से रही मेरी ता-ज़िंदगी
उस का सारे ज़माने से झगड़ा सा था
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जिन बातों को सुनना तक बार-ए-ख़ातिर था
आज उन्हीं बातों से दिल बहलाए हुए हूँ
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ज़मीं पर गिर रहे थे चाँद तारे जल्दी जल्दी
अंधेरा घर की दीवारों से ऊँचा हो रहा था
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बरसों हुए तुम कहीं नहीं हो
आज ऐसा लगा यहीं कहीं हो
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मय-ए-हयात में शामिल है तल्ख़ी-ए-दौराँ
जभी तो पी के तरसते हैं बे-ख़ुदी के लिए
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टैग : बेख़ुदी
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बहुत दिन ब'अद 'ज़ेहरा' तू ने कुछ ग़ज़लें तो लिख्खीं
न लिखने का किसी से क्या कोई वादा किया था
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लो डूबतों ने देख लिया नाख़ुदा को आज
तक़रीब कुछ तो बहर-ए-मुलाक़ात हो गई
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रुक जा हुजूम-ए-गुल कि अभी हौसला नहीं
दिल से ख़याल-ए-तंगी-ए-दामाँ गया नहीं
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उठो कि जश्न-ए-ख़िज़ाँ हम मनाएँ जी भर के
बहार आए गुलिस्ताँ में कब ख़ुदा जाने
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वहशत में भी मिन्नत-कश-ए-सहरा नहीं होते
कुछ लोग बिखर कर भी तमाशा नहीं होते
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हम जो पहुँचे तो रहगुज़र ही न थी
तुम जो आए तो मंज़िलें लाए
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साअतें जो तिरी क़ुर्बत में गिराँ गुज़री थीं
दूर से देखूँ तो अब वो भी भली लगती हैं
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तुम से हासिल हुआ इक गहरे समुंदर का सुकूत
और हर मौज से लड़ना भी तुम्ही से सीखा
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रात अजब आसेब-ज़दा सा मौसम था
अपना होना और न होना मुबहम था
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हम से बढ़ी मसाफ़त-ए-दश्त-ए-वफ़ा कि हम
ख़ुद ही भटक गए जो कभी रास्ता मिला
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इस उम्मीद पे रोज़ चराग़ जलाते हैं
आने वाले बरसों ब'अद भी आते हैं
शब-भर का तिरा जागना अच्छा नहीं 'ज़ेहरा'
फिर दिन का कोई काम भी पूरा नहीं होता
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रौशनियाँ अतराफ़ में 'ज़ेहरा' रौशन थीं
आईने में अक्स ही तेरा मद्धम था
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वो साथ न देता तो वो दाद न देता तो
ये लिखने-लिखाने का जो भी है ख़लल जाता
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अपना हर अंदाज़ आँखों को तर-ओ-ताज़ा लगा
कितने दिन के ब'अद मुझ को आईना अच्छा लगा
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अब भी कुछ लोग सुनाते हैं सुनाए हुए शेर
बातें अब भी तिरी ज़ेहनों में बसी लगती हैं
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देखो तो लगता है जैसे देखा था
सोचो तो फिर नाम नहीं याद आते हैं
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देर तक रौशनी रही कल रात
मैं ने ओढ़ी थी चाँदनी कल रात
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छोटी सी बात पे ख़ुश होना मुझे आता था
पर बड़ी बात पे चुप रहना तुम्ही से सीखा
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गर्दिश-ए-मीना-ओ-जाम देखिए कब तक रहे
हम पे तक़ाज़ा-ए-हराम देखिए कब तक रहे
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एक तेरा ग़म जिस को राह-ए-मो'तबर जानें
इस सफ़र में हम किस को अपना हम-सफ़र जानें
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नक़्श की तरह उभरना भी तुम्ही से सीखा
रफ़्ता रफ़्ता नज़र आना भी तुम्ही से सीखा
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ये उदासी ये फैलते साए
हम तुझे याद कर के पछताए
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वो न जाने क्या समझा ज़िक्र मौसमों का था
मैं ने जाने क्या सोचा बात रंग-ओ-बू की थी
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भूलना ख़ुद को तो आसाँ है भुला बैठा हूँ
वो सितमगर जो न भूले से भुलाया जाए
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कहाँ के इश्क़-ओ-मोहब्बत किधर के हिज्र ओ विसाल
अभी तो लोग तरसते हैं ज़िंदगी के लिए
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दिल बुझने लगा आतिश-ए-रुख़्सार के होते
तन्हा नज़र आते हैं ग़म-ए-यार के होते
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कोई हंगामा सर-ए-बज़्म उठाया जाए
कुछ किया जाए चराग़ों को बुझाया जाए
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दीवानों को अब वुसअत-ए-सहरा नहीं दरकार
वहशत के लिए साया-ए-दीवार बहुत है
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