बेकल उत्साही के शेर
बीच सड़क इक लाश पड़ी थी और ये लिक्खा था
भूक में ज़हरीली रोटी भी मीठी लगती है
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वो थे जवाब के साहिल पे मुंतज़िर लेकिन
समय की नाव में मेरा सवाल डूब गया
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उस का जवाब एक ही लम्हे में ख़त्म था
फिर भी मिरे सवाल का हक़ देर तक रहा
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उलझ रहे हैं बहुत लोग मेरी शोहरत से
किसी को यूँ तो कोई मुझ से इख़्तिलाफ़ न था
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वो मेरे क़त्ल का मुल्ज़िम है लोग कहते हैं
वो छुट सके तो मुझे भी गवाह लिख लीजे
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यूँ तो कई किताबें पढ़ीं ज़ेहन में मगर
महफ़ूज़ एक सादा वरक़ देर तक रहा
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लोग तो जा के समुंदर को जला आए हैं
मैं जिसे फूँक कर आया वो मिरा घर निकला
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ख़ुदा करे मिरा मुंसिफ़ सज़ा सुनाने पर
मिरा ही सर मिरे क़ातिल के रू-ब-रू रख दे
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हम भटकते रहे अंधेरे में
रौशनी कब हुई नहीं मालूम
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अज़्म-ए-मोहकम हो तो होती हैं बलाएँ पसपा
कितने तूफ़ान पलट देता है साहिल तन्हा
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हवा-ए-इश्क़ ने भी गुल खिलाए हैं क्या क्या
जो मेरा हाल था वो तेरा हाल होने लगा
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चाँदी के घरोंदों की जब बात चली होगी
मिट्टी के खिलौनों से बहलाए गए होंगे
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फ़र्श ता अर्श कोई नाम-ओ-निशाँ मिल न सका
मैं जिसे ढूँढ रहा था मिरे अंदर निकला
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इश्क़-विश्क़ ये चाहत-वाहत मन का भुलावा फिर मन भी अपना क्या
यार ये कैसा रिश्ता जो अपनों को ग़ैर करे मौला ख़ैर करे
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बदन की आँच से सँवला गए हैं पैराहन
मैं फिर भी सुब्ह के चेहरे पे शाम लिखता हूँ
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टैग : आंच
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न जाने कौन सा नश्शा है उन पे छाया हुआ
क़दम कहीं पे हैं पड़ते कहीं पे चलते हैं
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दौर-ए-हाज़िर की बज़्म में 'बेकल'
कौन है आदमी नहीं मालूम
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हर एक लहज़ा मिरी धड़कनों में चुभती थी
अजीब चीज़ मिरे दिल के आस-पास रही
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ज़मीन प्यासी है बूढ़ा गगन भी भूका है
मैं अपने अहद के क़िस्से तमाम लिखता हूँ
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किवाड़ बंद करो तीरा-बख़्तो सो जाओ
गली में यूँ ही उजालों की आहटें होंगी
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फ़रिश्ते देख रहे हैं ज़मीन ओ चर्ख़ का रब्त
ये फ़ासला भी तो इंसाँ की एक जस्त लगे
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मैं जब भी कोई अछूता कलाम लिखता हूँ
तो पहले एक ग़ज़ल तेरे नाम लिखता हूँ
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