एहसान दानिश के शेर
आज उस ने हँस के यूँ पूछा मिज़ाज
उम्र भर के रंज-ओ-ग़म याद आ गए
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ये उड़ी उड़ी सी रंगत ये खुले खुले से गेसू
तिरी सुब्ह कह रही है तिरी रात का फ़साना
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टैग : ज़ुल्फ़
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रहता नहीं इंसान तो मिट जाता है ग़म भी
सो जाएँगे इक रोज़ ज़मीं ओढ़ के हम भी
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किस किस की ज़बाँ रोकने जाऊँ तिरी ख़ातिर
किस किस की तबाही में तिरा हाथ नहीं है
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कुछ लोग जो सवार हैं काग़ज़ की नाव पर
तोहमत तराशते हैं हवा के दबाव पर
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तुम सादा-मिज़ाजी से मिटे फिरते हो जिस पर
वो शख़्स तो दुनिया में किसी का भी नहीं है
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मैं हैराँ हूँ कि क्यूँ उस से हुई थी दोस्ती अपनी
मुझे कैसे गवारा हो गई थी दुश्मनी अपनी
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जो दे रहे हो ज़मीं को वही ज़मीं देगी
बबूल बोए तो कैसे गुलाब निकलेगा
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और कुछ देर सितारो ठहरो
उस का व'अदा है ज़रूर आएगा
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टैग : वादा
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ज़ख़्म पे ज़ख़्म खा के जी अपने लहू के घूँट पी
आह न कर लबों को सी इश्क़ है दिल-लगी नहीं
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हाँ आप को देखा था मोहब्बत से हमीं ने
जी सारे ज़माने के गुनहगार हमीं थे
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वफ़ा का अहद था दिल को सँभालने के लिए
वो हँस पड़े मुझे मुश्किल में डालने के लिए
'एहसान' अपना कोई बुरे वक़्त का नहीं
अहबाब बेवफ़ा हैं ख़ुदा बे-नियाज़ है
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टैग : शिकवा
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हुस्न को दुनिया की आँखों से न देख
अपनी इक तर्ज़-ए-नज़र ईजाद कर
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टैग : हुस्न
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न जाने मोहब्बत का अंजाम क्या है
मैं अब हर तसल्ली से घबरा रहा हूँ
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टैग : मोहब्बत
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शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक
सोच कर जुर्म-ए-तमन्ना की सज़ा दो हम को
लोग यूँ देख के हँस देते हैं
तू मुझे भूल गया हो जैसे
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ज़ब्त भी सब्र भी इम्कान में सब कुछ है मगर
पहले कम-बख़्त मिरा दिल तो मिरा दिल हो जाए
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टैग : दिल
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कौन देता है मोहब्बत को परस्तिश का मक़ाम
तुम ये इंसाफ़ से सोचो तो दुआ दो हम को
'एहसान' ऐसा तल्ख़ जवाब-ए-वफ़ा मिला
हम इस के बाद फिर कोई अरमाँ न कर सके
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उट्ठा जो अब्र दिल की उमंगें चमक उठीं
लहराईं बिजलियाँ तो मैं लहरा के पी गया
बला से कुछ हो हम 'एहसान' अपनी ख़ू न छोड़ेंगे
हमेशा बे-वफ़ाओं से मिलेंगे बा-वफ़ा हो कर
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ख़ाक से सैंकड़ों उगे ख़ुर्शीद
है अंधेरा मगर चराग़-तले
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टैग : चराग़
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मैं जिस रफ़्तार से तूफ़ाँ की जानिब बढ़ता जाता हूँ
उसी रफ़्तार से नज़दीक साहिल होता जाता है
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टैग : साहिल
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हम हक़ीक़त हैं तो तस्लीम न करने का सबब
हाँ अगर हर्फ़-ए-ग़लत हैं तो मिटा दो हम को
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ये कौन हँस के सेहन-ए-चमन से गुज़र गया
अब तक हैं फूल चाक गरेबाँ किए हुए
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मरने वाले फ़ना भी पर्दा है
उठ सके गर तो ये हिजाब उठा
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दिल की शगुफ़्तगी के साथ राहत-ए-मय-कदा गई
फ़ुर्सत-ए-मय-कशी तो है हसरत-ए-मय-कशी नहीं
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सता लो मुझे ज़िंदगी में सता लो
खुलेगा पस-ए-मर्ग एहसान क्या था
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सुनता हूँ सुरंगों थे फ़रिश्ते मिरे हुज़ूर
मैं जाने अपनी ज़ात के किस मरहले में था
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हम चटानें हैं कोई रेत के साहिल तो नहीं
शौक़ से शहर-पनाहों में लगा दो हम को
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मक़्सद-ए-ज़ीस्त ग़म-ए-इश्क़ है सहरा हो कि शहर
बैठ जाएँगे जहाँ चाहो बिठा दो हम को
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कुछ अपने साज़-ए-नफ़स की न क़द्र की तू ने
कि इस रबाब से बेहतर कोई रबाब न था
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दमक रहा है जो नस नस की तिश्नगी से बदन
इस आग को न तिरा पैरहन छुपाएगा
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ये उजालों के जज़ीरे ये सराबों के दयार
सेहर-ओ-अफ़्सूँ के सिवा जश्न-ए-तरब कुछ भी नहीं
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किसे ख़बर थी कि ये दौर-ए-ख़ुद-ग़रज़ इक दिन
जुनूँ से क़ीमत-ए-दार-ओ-रसन छुपाएगा
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फ़ुसून-ए-शेर से हम उस मह-ए-गुरेज़ाँ को
ख़लाओं से सर-ए-काग़ज़ उतार लाए हैं
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ब-जुज़ उस के 'एहसान' को क्या समझिए
बहारों में खोया हुआ इक शराबी
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अव्वल अव्वल जब मुझे जौर-आश्ना समझा था मैं
आज समझा हूँ जो समझा था बजा समझा था मैं
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