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Himayat Ali Shayar's Photo'

हिमायत अली शाएर

1926 - 2019 | टोरंटो, कनाडा

हिमायत अली शाएर के शेर

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अपने किसी अमल पे नदामत नहीं मुझे

था नेक-दिल बहुत जो गुनहगार मुझ में था

इस जहाँ में तो अपना साया भी

रौशनी हो तो साथ चलता है

तुझ से वफ़ा की तो किसी से वफ़ा की

किस तरह इंतिक़ाम लिया अपने आप से

फिर मिरी आस बढ़ा कर मुझे मायूस कर

हासिल-ए-ग़म को ख़ुदा-रा ग़म-ए-हासिल बना

'शाइर' उन की दोस्ती का अब भी दम भरते हैं आप

ठोकरें खा कर तो सुनते हैं सँभल जाते हैं लोग

मैं कुछ कहूँ और ये चाहूँ कि मिरी बात

ख़ुश्बू की तरह उड़ के तिरे दिल में उतर जाए

सिर्फ़ ज़िंदा रहने को ज़िंदगी नहीं कहते

कुछ ग़म-ए-मोहब्बत हो कुछ ग़म-ए-जहाँ यारो

रौशनी में अपनी शख़्सियत पे जब भी सोचना

अपने क़द को अपने साए से भी कम-तर देखना

इस दश्त-ए-सुख़न में कोई क्या फूल खिलाए

चमकी जो ज़रा धूप तो जलने लगे साए

हर क़दम पर नित-नए साँचे में ढल जाते हैं लोग

देखते ही देखते कितने बदल जाते हैं लोग

मैं सच तो बोलता हूँ मगर ख़ुदा-ए-हर्फ़

तू जिस में सोचता है मुझे वो ज़बान दे

ईमाँ भी लाज रख सका मेरे झूट की

अपने ख़ुदा पे कितना मुझे ए'तिमाद था

सूरज के उजाले में चराग़ाँ नहीं मुमकिन

सूरज को बुझा दो कि ज़मीं जश्न मनाए

बदन पे पैरहन-ए-ख़ाक के सिवा क्या है

मिरे अलाव में अब राख के सिवा क्या है

इस दश्त पे एहसाँ कर अब्र-ए-रवाँ और

जब आग हो नम-ख़ुर्दा तो उठता है धुआँ और

किस लिए कीजे किसी गुम-गश्ता जन्नत की तलाश

जब कि मिट्टी के खिलौनों से बहल जाते हैं लोग

ये कैसा क़ाफ़िला है जिस में सारे लोग तन्हा हैं

ये किस बर्ज़ख़ में हैं हम सब तुम्हें भी सोचना होगा

हम भी हैं किसी कहफ़ के असहाब के मानिंद

ऐसा हो जब आँख खुले वक़्त गुज़र जाए

मैं सोचता हूँ इस लिए शायद मैं ज़िंदा हूँ

मुमकिन है ये गुमान हक़ीक़त का ज्ञान दे

ज़िंदगी की बात सुन कर क्या कहें

इक तमन्ना थी तक़ाज़ा बन गई

अब कोई मंज़िल है और रहगुज़र कोई

जाने क़ाफ़िला भटके अब कहाँ कहाँ यारो

हर तरफ़ इक मुहीब सन्नाटा

दिल धड़कता तो है मगर ख़ामोश

शम्अ के मानिंद अहल-ए-अंजुमन से बे-नियाज़

अक्सर अपनी आग में चुप चाप जल जाते हैं लोग

तारीकी में लिपटी हुई पुर-हौल ख़मोशी

इस आलम में क्या नहीं मुमकिन जागते रहना

सूरज को ये ग़म है कि समुंदर भी है पायाब

या रब मिरे क़ुल्ज़ुम में कोई सैल-ए-रवाँ और

रह जाए इक निगाह का पर्दा ही दरमियाँ

तहज़ीब के बदन से तो रस्म-ए-क़बा उठी

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