बदन पर शेर
उर्दू शायरी में बदन
कहीं-कहीं मुख्य पात्र के तौर पर सामने आता है । शायरों ने बदन को उसके सौन्दर्यशास्त्र के साथ विभिन्न और विविध तरीक़ों से शायरी में पेश किया है । बदन के सौन्दर्यशास्त्र को अपना विषय बनाने वाली उर्दू शायरी में अशलीलता को भी कला के अपने सौन्दर्य में स्थापित किया गया है । उर्दू शायरी ने बदन केंद्रित शायरी में सूफ़ीवाद से भी गहरा संवाद किया है ।
उफ़ वो मरमर से तराशा हुआ शफ़्फ़ाफ़ बदन
देखने वाले उसे ताज-महल कहते हैं
बदन के दोनों किनारों से जल रहा हूँ मैं
कि छू रहा हूँ तुझे और पिघल रहा हूँ मैं
तुझ सा कोई जहान में नाज़ुक-बदन कहाँ
ये पंखुड़ी से होंट ये गुल सा बदन कहाँ
किसी कली किसी गुल में किसी चमन में नहीं
वो रंग है ही नहीं जो तिरे बदन में नहीं
कौन बदन से आगे देखे औरत को
सब की आँखें गिरवी हैं इस नगरी में
ख़ुदा के वास्ते गुल को न मेरे हाथ से लो
मुझे बू आती है इस में किसी बदन की सी
गूँध के गोया पत्ती गुल की वो तरकीब बनाई है
रंग बदन का तब देखो जब चोली भीगे पसीने में
रास्ता दे कि मोहब्बत में बदन शामिल है
मैं फ़क़त रूह नहीं हूँ मुझे हल्का न समझ
मैं उस के बदन की मुक़द्दस किताब
निहायत अक़ीदत से पढ़ता रहा
नूर-ए-बदन से फैली अंधेरे में चाँदनी
कपड़े जो उस ने शब को उतारे पलंग पर
रूह को रूह से मिलने नहीं देता है बदन
ख़ैर ये बीच की दीवार गिरा चाहती है
क्या बदन है कि ठहरता ही नहीं आँखों में
बस यही देखता रहता हूँ कि अब क्या होगा
शर्म भी इक तरह की चोरी है
वो बदन को चुराए बैठे हैं
मगर गिरफ़्त में आता नहीं बदन उस का
ख़याल ढूँढता रहता है इस्तिआरा कोई
रख दी है उस ने खोल के ख़ुद जिस्म की किताब
सादा वरक़ पे ले कोई मंज़र उतार दे
वो अपने हुस्न की ख़ैरात देने वाले हैं
तमाम जिस्म को कासा बना के चलना है
ढूँडता हूँ मैं ज़मीं अच्छी सी
ये बदन जिस में उतारा जाए
मैं तेरी मंज़िल-ए-जाँ तक पहुँच तो सकता हूँ
मगर ये राह बदन की तरफ़ से आती है
अँधेरी रातों में देख लेना
दिखाई देगी बदन की ख़ुश्बू
जी चाहता है हाथ लगा कर भी देख लें
उस का बदन क़बा है कि उस की क़बा बदन
लगते ही हाथ के जो खींचे है रूह तन से
क्या जानें क्या वो शय है उस के बदन के अंदर
अब देखता हूँ मैं तो वो अस्बाब ही नहीं
लगता है रास्ते में कहीं खुल गया बदन
क्या सबब तेरे बदन के गर्म होने का सजन
आशिक़ों में कौन जलता था गले किस के लगा
चमन वही कि जहाँ पर लबों के फूल खिलें
बदन वही कि जहाँ रात हो गवारा भी
क्या बदन होगा कि जिस के खोलते जामे का बंद
बर्ग-ए-गुल की तरह हर नाख़ुन मोअत्तर हो गया
क्या क्या बदन-ए-साफ़ नज़र आते हैं हम को
क्या क्या शिकम ओ नाफ़ नज़र आते हैं हम को
ये बे-कनार बदन कौन पार कर पाया
बहे चले गए सब लोग इस रवानी में
बदन पे पैरहन-ए-ख़ाक के सिवा क्या है
मिरे अलाव में अब राख के सिवा क्या है
तिरे बदन की ख़लाओं में आँख खुलती है
हवा के जिस्म से जब जब लिपट के सोता हूँ
उस वक़्त जान प्यारे हम पावते हैं जी सा
लगता है जब बदन से तैरे बदन हमारा
बहुत लम्बी मसाफ़त है बदन की
मुसाफ़िर मुब्तदी थकने लगा है
मोहब्बत के ठिकाने ढूँढती है
बदन की ला-मकानी मौसमों में
यूँ है डलक बदन की उस पैरहन की तह में
सुर्ख़ी बदन की जैसे छलके बदन की तह में
हर एक साज़ को साज़िंदगाँ नहीं दरकार
बदन को ज़र्बत-ए-मिज़राब से इलाक़ा नहीं