रंग पर शेर
रंग ज़िन्दगी में हो
या शायरी में, हुस्न में इज़ाफ़ा करते हैं बशर्ते कि इनका इस्तेमाल अच्छी तरह सोच समझ कर किया गया हो। बागों से लेकर ख़्वाहिशों तक रंगों की एक ऐसी दुनिया आबाद है जिनसे बाहर निकलने का जी नहीं करता। रंग शायरी भी ऐसी ही एक रंगोली बनती है जो आपकी आँखों को ठंढक और दिल को सुकून की दौलत से मालामाल करती हैः
तमाम रात नहाया था शहर बारिश में
वो रंग उतर ही गए जो उतरने वाले थे
किसी कली किसी गुल में किसी चमन में नहीं
वो रंग है ही नहीं जो तिरे बदन में नहीं
लब-ए-नाज़ुक के बोसे लूँ तो मिस्सी मुँह बनाती है
कफ़-ए-पा को अगर चूमूँ तो मेहंदी रंग लाती है
रंग दरकार थे हम को तिरी ख़ामोशी के
एक आवाज़ की तस्वीर बनानी थी हमें
ग़ैर से खेली है होली यार ने
डाले मुझ पर दीदा-ए-ख़ूँ-बार रंग
अब की होली में रहा बे-कार रंग
और ही लाया फ़िराक़-ए-यार रंग
मुझ को एहसास-ए-रंग-ओ-बू न हुआ
यूँ भी अक्सर बहार आई है
तुम्हारे रंग फीके पड़ गए नाँ?
मिरी आँखों की वीरानी के आगे
रंग ही से फ़रेब खाते रहें
ख़ुशबुएँ आज़माना भूल गए
किस की होली जश्न-ए-नौ-रोज़ी है आज
सुर्ख़ मय से साक़िया दस्तार रंग
हज़ार रंग-ब-दामाँ सही मगर दुनिया
बस एक सिलसिला-ए-एतिबार है, क्या है
अजब बहार दिखाई लहू के छींटों ने
ख़िज़ाँ का रंग भी रंग-ए-बहार जैसा था
कब तक चुनरी पर ही ज़ुल्म हों रंगों के
रंगरेज़ा तेरी भी क़बा पर बरसे रंग
उजालों में छुपी थी एक लड़की
फ़लक का रंग-रोग़न कर गई है
दश्त-ए-वफ़ा में जल के न रह जाएँ अपने दिल
वो धूप है कि रंग हैं काले पड़े हुए
वो कूदते उछलते रंगीन पैरहन थे
मासूम क़हक़हों में उड़ता गुलाल देखा