मर्दान अली खां राना के शेर
राह-ए-उल्फ़त में मुलाक़ात हुई किस किस से
दश्त में क़ैस मिला कोह में फ़रहाद मुझे
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न पूछो हम-सफ़रो मुझ से माजरा-ए-वतन
वतन है मुझ पे फ़िदा और मैं फ़िदा-ए-वतन
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प्यार की बातें कीजिए साहब
लुत्फ़ सोहबत का गुफ़्तुगू से है
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तेरे आते ही देख राहत-ए-जाँ
चैन है सब्र है क़रार है आज
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बदन पर बार है फूलों का साया
मिरा महबूब ऐसा नाज़नीं है
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उठाया उस ने बीड़ा क़त्ल का कुछ दिल में ठाना है
चबाना पान का भी ख़ूँ बहाने का बहाना है
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पड़ा हूँ मैं यहाँ और दिल वहीं है
इलाही मैं कहीं हूँ वो कहीं है
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ले क़ज़ा एहसान तुझ पर कर चले
हम तिरे आने से पहले मर चले
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कटा था रोज़-ए-मुसीबत ख़ुदा ख़ुदा कर के
ये रात आई कि सर पे मिरे अज़ाब आया
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हुआ यक़ीं कि ज़मीं पर है आज चाँद-गहन
वो माह चेहरे पे जब डाल कर नक़ाब आया
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हर दम दम-ए-आख़िर है अजल सर पे खड़ी है
दम-भर भी हम इस दम का भरोसा नहीं करते
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हिज्र-ए-जानाँ में जी से जाना है
बस यही मौत का बहाना है
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कहना क़ासिद कि उस के जीने का
वादा-ए-वस्ल पर मदार है आज
न निकली हसरत-ए-दिल एक भी हज़ार अफ़सोस
अदम से आए थे क्या क्या हम आरज़ू करते
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हरजाइयों के इश्क़ ने क्या क्या किया ज़लील
रुस्वा रहे ख़राब रहे दर-ब-दर रहे
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ख़ाक भी लुत्फ़-ए-ज़िंदगी न रहा
आरज़ू जी में हो वो जी न रहा
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अबरू आँचल में दुपट्टे के छुपाना है बजा
तुर्क क्या म्यान में रखते नहीं तलवारों को
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न आई बात तक भी मुँह पे रोब-ए-हुस्न-ए-जानाँ से
हज़ारों सोच कर मज़मून हम दरबार में आए
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की रिया से न शैख़ ने तौबा
मर गया वो गुनाहगार अफ़सोस
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क्यूँकर बढ़ाऊँ रब्त न दरबान-ए-यार से
आख़िर कोई तो मिलने की तदबीर चाहिए
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दुनिया में कोई इश्क़ से बद-तर नहीं है चीज़
दिल अपना मुफ़्त दीजिए फिर जी से जाइए
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रस्म उल्टी है ख़ूब-रूयों की
दोस्त जिस के बनो वो दुश्मन है
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हाथों में नाज़ुकी से सँभलती नहीं जो तेग़
है इस में क्या गुनाह तेरे जाँ-निसार का
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ना-उमीद अहल-ए-ख़राबात नहीं रहमत से
बख़्श देगा वो करीम अपने गुनाहगारों को
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रेल पर यार आएगा शायद
मुज़्दा-ए-वस्ल आज तार में है
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दिया वो जो न था वहम-ओ-गुमाँ में
भला मैं और क्या माँगूँ ख़ुदा से
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हो ग़रीबों का चाक ख़ाक रफ़ू
तार हाथ आए जब न दामन से
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हमारे मर्ग पे शादी अबस अग़्यार करते हैं
जहाँ से रफ़्ता-रफ़्ता एक दिन उन को भी जाना है
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फ़ुर्क़त की रात वस्ल की शब का मज़ा मिला
पहरों ख़याल-ए-यार से बातें किया किए
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खो गया कू-ए-दिलरुबा में 'निज़ाम'
लोग कहते हैं मारवाड़ में है
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ये रक़ीबों की है सुख़न-साज़ी
बे-वफ़ा आप हों ख़ुदा न करे
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बदन में ज़ख़्म नहीं बद्धियाँ हैं फूलों की
हम अपने दिल में इसी को बहार जानते हैं
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तुम को दीवाने अगर हम से हज़ारों हैं तो ख़ैर
हम भी कर लेंगे कोई तुम सा परी-रू पैदा
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लबों पे जान है इक दम का और मेहमाँ है
मरीज़-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत का तेरे हाल ये है
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हर-दम ये दुआ माँगते रहते हैं ख़ुदा से
अल्लाह बचाए शब-ए-फ़ुर्क़त की बला से
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दिल को लगाऊँ और से मैं तुम को छोड़ दूँ
फ़िक़रा है ये रक़ीब का और झूठ बात है
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जिस को सब कहते हैं समुंदर है
क़तरा-ए-अश्क-ए-दीदा-ए-तर है
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ख़ुदा रा बहर-ए-इस्तिक़बाल जल्द ऐ जान बाहर आ
अयादत को मिरी जान-ए-जहाँ तशरीफ़ लाते हैं
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ख़ूब जीने का मज़ा पाते हैं हम
ख़ून-ए-दिल पीते हैं ग़म खाते हैं हम
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दर्द-ए-सर है तेरी सब पंद-ओ-नसीहत नासेह
छोड़ दे मुझ को ख़ुदा पर न कर अब सर ख़ाली
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मैं शौक़-ए-वस्ल में क्या रेल पर शिताब आया
कि सुब्ह हिन्द में था शाम पंज-आब आया
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जो चीज़ है जहान में वो बे-मिसाल है
हर फ़र्द-ए-ख़ल्क़ वहदत-ए-हक़ पर दलील है
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ग़म सिवा इश्क़ का मआल नहीं
कौन दिल है जो पाएमाल नहीं
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जिस को देखो वो नूर का बुक़अ'
ये परिस्तान है कि लंदन है
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अश्क-ए-हसरत दीदा-ए-दिल से हैं जारी इन दिनों
कार-ए-तूफाँ कर रही है अश्क-बारी इन दिनों
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तुम हो मुझ से हज़ार मुस्तग़नी
दिल नहीं मेरा यार मुस्तग़नी
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खींचा है अक्स क़ल्ब की फ़ोटोग्राफ़ में
शीशे में है शबीह परी कोह-ए-क़ाफ़ में
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आख़िर हुआ है हश्र बपा इंतिज़ार में
सुब्ह-ए-शब-ए-फ़िराक़ हुई मारवाड़ में
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