खालिद इरफ़ान के शेर
दो चार दिन से मेरी समाअत ब्लाक थी
तुम ने ग़ज़ल पढ़ी तो मिरा कान खुल गया
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मैं ने बस इतना ही लिखा आई-लौ-यू और फिर
उस ने आगे कर दिया था गाल इंटरनेट पर
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बिकती है अब किताब भी कैसेट के रेट पे
कैसे बनेगा 'ग़ालिब' ओ 'इक़बाल' का बजट
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बिछड़े थे जब ये लोग महीना था जून का
सोहनी बना रही थी महींवाल का बजट
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जो तुम परफ़्यूम में डुबकी लगा कर रोज़ आती हो
फ़ज़ा तुम से मोअत्तर है हवा में कुछ नहीं रक्खा
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न हों पैसे तो इस्तक़बालियों से कुछ नहीं होगा
किसी शायर को ख़ाली तालियों से कुछ नहीं होगा
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कैसा अजीब आया है इस साल का बजट
मुर्ग़ी का जो बजट है वही दाल का बजट
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गर्मी जो आई घर का हवा-दान खुल गया
साहिल पे जब गया तो हर इंसान खुल गया
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टैग : गर्मी
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अब घर के दरीचे में आएगी हवा कैसे
आगे भी प्लाज़ा है पीछे भी प्लाज़ा है
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भूक तख़्लीक़ का टैलेंट बढ़ा देती है
पेट ख़ाली हो तो हम शेर नया कहते हैं
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टैग : शेर
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टीवी का ये मज़ाक़ अदीबों के साथ है
शाएर से दुगना रख दिया क़व्वाल का बजट
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जो लुग़त को तोड़-मरोड़ दे जो ग़ज़ल को नस्र से जोड़ दे
मैं वो बद-मज़ाक़-ए-सुख़न नहीं वो जदीदिया कोई और है
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