शकील आज़मी के शेर
बस इक पुकार पे दरवाज़ा खोल देते हैं
ज़रा सा सब्र भी इन आँसुओं से होता नहीं
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घर के दीवार-ओ-दर पे शाम ही से
नज़्म लिखता हुआ है सन्नाटा
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कुछ दिनों के लिए मंज़र से अगर हट जाओ
ज़िंदगी भर की शनासाई चली जाती है
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मुझ को बिखराया गया और समेटा भी गया
जाने अब क्या मिरी मिट्टी से ख़ुदा चाहता है
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इसी ख़ता पे बुझाए गए चराग़ मिरे
मैं जानता था बहुत कुछ हवा के बारे में
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जाने कैसा रिश्ता है रहगुज़र का क़दमों से
थक के बैठ जाऊँ तो रास्ता बुलाता है
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हार हो जाती है जब मान लिया जाता है
जीत तब होती है जब ठान लिया जाता है
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भूक में इश्क़ की तहज़ीब भी मर जाती है
चाँद आकाश पे थाली की तरह लगता है
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ख़ुद को इतना भी मत बचाया कर
बारिशें हों तो भीग जाया कर
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मेरे होंटों पे ख़ामुशी है बहुत
इन गुलाबों पे तितलियाँ रख दे
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बात से बात की गहराई चली जाती है
झूट आ जाए तो सच्चाई चली जाती है
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मैं सो रहा हूँ तिरे ख़्वाब देखने के लिए
ये आरज़ू है कि आँखों में रात रह जाए
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आज आँखों में कोई रात गए आएगा
आज की रात ये दरवाज़ा खुला रहने दे
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हादसे शहर का दस्तूर बने जाते हैं
अब यहाँ साया-ए-दीवार न ढूँढें कोई
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बिछड़ के भी वो मिरे साथ ही रहा हर दम
सफ़र के बा'द भी मैं रेल में सवार रहा
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तुम्हारे दर्द से ले कर हमारे आँसू तक
बड़ी तवील कहानी है आग पानी की
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जब तलक उस ने हम से बातें कीं
जैसे फूलों के दरमियान थे हम
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हर घड़ी चश्म-ए-ख़रीदार में रहने के लिए
कुछ हुनर चाहिए बाज़ार में रहने के लिए
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फिर यूँ हुआ थकन का नशा और बढ़ गया
आँखों में डूबता हुआ जादा लगा हमें
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इस बार उस की आँखों में इतने सवाल थे
मैं भी सवाल बन के सवालों में रह गया
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अपनी मंज़िल पे पहुँचना भी खड़े रहना भी
कितना मुश्किल है बड़े हो के बड़े रहना भी
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तेरे रोने की ख़बर रखती हैं आँखें मेरी
तेरा आँसू मिरे रूमाल में आ जाता है
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ज़मीन ले के वो आए तो घर बनाया जाए
खड़े हैं देर से हम लोग ईंट गारे लिए
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तुम्हारी मौत ने मारा है जीते-जी हम को
हमारी जान भी गोया तुम्हारी जान में थी
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टैग : श्रद्धांजलि
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