उम्मीद फ़ाज़ली के शेर
ऐ दोपहर की धूप बता क्या जवाब दूँ
दीवार पूछती है कि साया किधर गया
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चमन में रखते हैं काँटे भी इक मक़ाम ऐ दोस्त
फ़क़त गुलों से ही गुलशन की आबरू तो नहीं
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कल उस की आँख ने क्या ज़िंदा गुफ़्तुगू की थी
गुमान तक न हुआ वो बिछड़ने वाला है
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घर तो ऐसा कहाँ का था लेकिन
दर-ब-दर हैं तो याद आता है
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आसमानों से फ़रिश्ते जो उतारे जाएँ
वो भी इस दौर में सच बोलें तो मारे जाएँ
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टैग : सच
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ये ख़ुद-फ़रेबी-ए-एहसास-ए-आरज़ू तो नहीं
तिरी तलाश कहीं अपनी जुस्तुजू तो नहीं
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टैग : जुस्तुजू
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ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बोझ
हम अपने शहर में होते तो घर गए होते
व्याख्या
यह शे’र उर्दू के मशहूर अशआर में से एक है। इसमें जो स्थिति पाई जाती है उसे अत्यंत एकांत अवस्था की कल्पना की जा सकती है। इसके विधानों में शिद्दत भी है और एहसास भी। “सर्द रात”, “आवारगी” और “नींद का बोझ” ये ऐसी तीन अवस्थाएं हैं जिनसे तन्हाई की तस्वीर बनती है और जब ये कहा कि “हम अपने शहर में होते तो घर गए होते” तो जैसे तन्हाई के साथ साथ बेघर होने की त्रासदी को भी चित्रित किया गया है। शे’र का मुख्य विषय तन्हाई और बेघर होना और अजनबीयत है। शायर किसी और शहर में है और सर्द रात में आँखों पर नींद का बोझ लिये आवारा घूम रहा है। स्पष्ट है कि वो शहर में अजनबी है इसलिए किसी के घर नहीं जा सकता वरना सर्द रात, आवारगी और नींद का बोझ वो मजबूरियाँ हैं जो किसी ठिकाने की मांग करती हैं। मगर शायर की त्रासदी यह है कि वो तन्हाई के शहर में किसी को जानता नहीं इसीलिए कहता है कि अगर मैं अपने शहर में होता तो अपने घर चला गया होता।
शफ़क़ सुपुरी
मक़्तल-ए-जाँ से कि ज़िंदाँ से कि घर से निकले
हम तो ख़ुशबू की तरह निकले जिधर से निकले
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जाने कब तूफ़ान बने और रस्ता रस्ता बिछ जाए
बंद बना कर सो मत जाना दरिया आख़िर दरिया है
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जाने किस मोड़ पे ले आई हमें तेरी तलब
सर पे सूरज भी नहीं राह में साया भी नहीं
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वो ख़्वाब ही सही पेश-ए-नज़र तो अब भी है
बिछड़ने वाला शरीक-ए-सफ़र तो अब भी है
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जब से 'उम्मीद' गया है कोई!!
लम्हे सदियों की अलामत ठहरे
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गर क़यामत ये नहीं है तो क़यामत क्या है
शहर जलता रहा और लोग न घर से निकले
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तिरी तलाश में जाने कहाँ भटक जाऊँ
सफ़र में दश्त भी आता है घर भी आता है
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सुकूत वो भी मुसलसल सुकूत क्या मअनी
कहीं यही तिरा अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू तो नहीं
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