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रद करें डाउनलोड शेर

किसान दिवस पर शेर

शेर-ओ-अदब के समाजी सरोकार भी वाज़ेह रहे हैं और शायरों ने इब्तिदा ही से अपने आप पास के मसाएल को शायरी का हिस्सा बनाया है अल-बत्ता एक दौर ऐसा आया जब शायरी को समाजी इन्क़िलाब के एक ज़रिये के तौर पर इख़्तियार किया गया और समाज के निचले, गिरे पड़े और किसान तबक़े के मसाएल का इज़हार शायरी का बुनियादी मौज़ू बन गया। आप इन शेरों में देखेंगे कि किसान तबक़ा ज़िंदगी करने के अमल में किस कर्ब और दुख से गुज़र्ता है और उस की समाजी हैसियत क्या है।किसानों पर की जाने वाली शायरी की और भी कई जहतें है। हमारा ये इन्तिख़ाब पढ़िए।

सो जाते हैं फ़ुटपाथ पे अख़बार बिछा कर

मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते

मुनव्वर राना

तू क़ादिर आदिल है मगर तेरे जहाँ में

हैं तल्ख़ बहुत बंदा-ए-मज़दूर के औक़ात

अल्लामा इक़बाल

मेहनत कर के हम तो आख़िर भूके भी सो जाएँगे

या मौला तू बरकत रखना बच्चों की गुड़-धानी में

विलास पंडित मुसाफ़िर

बोझ उठाना शौक़ कहाँ है मजबूरी का सौदा है

रहते रहते स्टेशन पर लोग क़ुली हो जाते हैं

मुनव्वर राना

हलाल रिज़्क़ का मतलब किसान से पूछो

पसीना बन के बदन से लहू निकलता है

आदिल रशीद

अब उन की ख़्वाब-गाहों में कोई आवाज़ मत करना

बहुत थक-हार कर फ़ुटपाथ पर मज़दूर सोए हैं

नफ़स अम्बालवी

बुलाते हैं हमें मेहनत-कशों के हाथ के छाले

चलो मुहताज के मुँह में निवाला रख दिया जाए

रज़ा मौरान्वी

सरों पे ओढ़ के मज़दूर धूप की चादर

ख़ुद अपने सर पे उसे साएबाँ समझने लगे

शारिब मौरान्वी

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