अब्दुल हमीद साक़ी के शेर
अपनी आँखों का समुंदर बह के तो ख़ामोश है
दिल के अंदर की सुलगती आग को हम क्या करें
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ख़ुदी की रौशनी में मैं ने देखा है अक़ीदत को
ख़ुदाई वर्ना आज़र की मिरी ठोकर पे रक्खी थी
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बजाए ज़हराब किस ने साक़ी भरे हैं अमृत से जाम-ओ-साग़र
कि लोग आब-ए-हयात पी कर क़ज़ा से पहले ही मर रहे हैं
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