अब्दुस्समद ’तपिश’ के शेर
उसे खिलौनों से बढ़ कर है फ़िक्र रोटी की
हमारे दौर का बच्चा जनम से बूढ़ा है
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कोई कॉलम नहीं है हादसों पर
बचा कर आज का अख़बार रखना
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उन के लब पर मिरा गिला ही सही
याद करने का सिलसिला तो है
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जहाँ तक पाँव मेरे जा सके हैं
वहीं तक रास्ता ठहरा हुआ है
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मैं भी तन्हा इस तरफ़ हूँ वो भी तन्हा उस तरफ़
मैं परेशाँ हूँ तो हूँ वो भी परेशानी में है
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वही क़ातिल वही मुंसिफ़ बना है
उसी से फ़ैसला ठहरा हुआ है
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सब को दिखलाता है वो छोटा बना कर मुझ को
मुझ को वो मेरे बराबर नहीं होने देता
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वक़्त के दामन में कोई
अपनी एक कहानी रख
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अब निशाना उस की अपनी ज़ात है
लड़ रहा है इक अनोखी जंग वो
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क्यूँ वो मिलने से गुरेज़ाँ इस क़दर होने लगे
मेरे उन के दरमियाँ दीवार रख जाता है कौन
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पत्ते पत्ते से नग़्मा-सरा कौन है
ऐ हवा तेरे अंदर छुपा कौन है
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जफ़ा के ज़िक्र पे वो बद-हवास कैसा है
ज़रा सी बात थी लेकिन उदास कैसा है
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मिरी क़िंदील-ए-जाँ जलती है शब भर
ज़रा अपनी भी तो रूदाद-ए-शब लिख
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ये मैं हूँ ख़ुद कि कोई और है तआक़ुब में
ये एक साया पस-ए-रहगुज़ार किस का है
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न जाने कौन फ़ज़ाओं में ज़हर घोल गया
हरा-भरा सा शजर बे-लिबास कैसा है
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वो बड़ा था फिर भी वो इस क़दर बे-फ़ैज़ था
उस घनेरे पेड़ में जैसे कोई साया न था
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हवा-ए-तुंद कैसी चल पड़ी है
शजर पर एक भी पत्ता नहीं है
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मैं ने जो कुछ भी लिक्खा है
वो सब हर्फ़-ए-आइंदा है
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कुछ हक़ाएक़ के ज़िंदा पैकर हैं
लफ़्ज़ में क्या बयान में क्या है
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