अबु मोहम्मद सहर
ग़ज़ल 19
अशआर 15
तकमील-ए-आरज़ू से भी होता है ग़म कभी
ऐसी दुआ न माँग जिसे बद-दुआ कहें
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हिन्दू से पूछिए न मुसलमाँ से पूछिए
इंसानियत का ग़म किसी इंसाँ से पूछिए
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इश्क़ के मज़मूँ थे जिन में वो रिसाले क्या हुए
ऐ किताब-ए-ज़िंदगी तेरे हवाले क्या हुए
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'सहर' अब होगा मेरा ज़िक्र भी रौशन-दिमाग़ों में
मोहब्बत नाम की इक रस्म-ए-बेजा छोड़ दी मैं ने
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हमें तन्हाइयों में यूँ तो क्या क्या याद आता है
मगर सच पूछिए तो एक चेहरा याद आता है
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पुस्तकें 28
चित्र शायरी 3
अब तक इलाज-ए-रंजिश-ए-बे-जा न कर सके इक उम्र में भी हुस्न को अपना न कर सके थी एक रस्म-ए-इश्क़ सो हम ने भी की अदा दुनिया में कोई काम अनोखा न कर सके कल रात दिल के साथ बुझे इस तरह चराग़ यादों के सिलसिले भी उजाला न कर सके अब इस से क्या ग़रज़ है कि अंजाम क्या हुआ ये तो नहीं कि तेरी तमन्ना न कर सके ख़ुद इश्क़ ही को दे गए रुस्वाइयों के दाग़ वो राज़-ए-हुस्न हम जिन्हें इफ़शा न कर सके ज़ौक़-ए-जुनूँ को रास नहीं तंग बस्तियाँ सहरा न हो तो क्या कोई दीवाना कर सके हर इम्तियाज़ उस के लिए हेच है 'सहर' जो अपनी ज़िंदगी को तमाशा न कर सके