अबु मोहम्मद वासिल बहराईची के शेर
हँसा करते हैं अक्सर लोग दीवानों की बातों पर
जहाँ वाले नहीं समझे मोहब्बत की ज़बाँ शायद
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रह-ए-वफ़ा में उन्हीं की ख़ुशी की बात करो
वो ज़िंदगी हैं तो फिर ज़िंदगी की बात करो
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तिरे ख़याल में मैं हूँ मिरे ख़याल में तू
मिरे बग़ैर तिरी दास्ताँ रहे न रहे
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मिज़ाज-ए-हुस्न तो इक हाल पर रहा क़ाएम
लुटाने वालों ने सब कुछ लुटा के देख लिया
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मुझे वो बातों बातों में अगर दीवाना कह देते
तो दीवानों में मेरी मो'तबर दीवानगी होती
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अगर तेरी तरह तब्लीग़ करता पीर-ए-मय-ख़ाना
तो दुनिया-भर में वाइज़ मय-कशी ही मय-कशी होती
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वफ़ादारी ग़ुरूर-ए-बे-रुख़ी को ख़त्म कर देगी
ज़ियादा तो नहीं कुछ दिन रहें वो बद-गुमाँ शायद
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एक ही चीज़ है पर्दे में कि बैरून-ए-हिजाब
मुझ को ज़ाहिर भी किया ख़ुद को छुपाया भी गया
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होश में लाने की तदबीर न कर ऐ नासेह
मैं ने पाया है उन्हें चाक-ए-गरेबाँ हो कर
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कारवाँ इश्क़ की मंज़िल के क़रीं आ पहूँचा
ख़ुद मिरे दिल में मिरे दिल का मकीं आ पहूँचा
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मसरूर हो रहे हैं ग़म-ए-आशिक़ी से हम
क्यूँ तंग होंगे कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम
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राह-ए-वफ़ा में जी के मरे मर के भी जिए
खेला उसी तरह से किए ज़िंदगी से हम
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हमारी लाश गुलिस्ताँ में दफ़्न कर सय्याद
चमन से दूर कोई नौहा-ख़्वाँ रहे न रहे
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सर्द-मेहरी से तिरी गर्मी-ए-उल्फ़त न रही
दिल में उठता था जो हर-दम वो शरारा भी गया
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दिल के आईने में जब आप की सूरत देखी
जिस को धोका मैं समझता था वो धोका भी गया
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ज़ुल्मतों का गुज़र कहाँ मुमकिन
उन का रौशन ख़याल आता है
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निगाह-ए-पर्दा-कुशा का कमाल क्या कहना
जहाँ जहाँ वो छुपे उस ने जा के देख लिया
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