अफ़ीफ़ सिराज के शेर
जब बात वफ़ा की आती है जब मंज़र रंग बदलता है
और बात बिगड़ने लगती है वो फिर इक वा'दा करते हैं
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मैं हिकायत-ए-दिल-ए-बे-नवा में इशारत-ए-ग़म-ए-जाविदाँ
मैं वो हर्फ़-ए-आख़िर-ए-मोतबर जो लिखा गया न पढ़ा गया
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बस्ती तमाम ख़्वाब की वीरान हो गई
यूँ ख़त्म शब हुई सहर आसान हो गई
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बहुत शगुफ़्ता-ओ-रंगीन गुफ़्तुगू है 'सिराज'
चमन में बात तिरी रंग-ओ-बू से खेलेगी
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इस क़दर डूबे गुनाह-ए-इश्क़ में तेरे हबीब
सोचते हैं जाएँगे किस मुँह से तौबा की तरफ़
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ख़्वाब-आलूद निगाहों से ये कहता गुज़रा
मैं हक़ीक़त था जो ता'बीर में रक्खा गया था
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रह गया दर्द दिल के पहलू में
ये जो उल्फ़त थी दर्द-ए-सर न हुई
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शुक्रिया तुम ने बुझाया मिरी हस्ती का चराग़
तुम सज़ा-वार नहीं तुम ने तो अच्छाई की
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टैग : शुक्रिया
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उस के फ़िक़रे से मैं क्या समझूँ कोई समझा दे
दफ़अ'तन मेरी तरफ़ देख के बोला ऐ है
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कुछ ख़ुद में कशिश पैदा कर लो कि महफ़िल तुम से आँख भरे
ये चाल बड़े अय्यार की है ये चाल न ख़ाली जाएगी
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इस क़दर नाज़ न कीजे कि बुज़ुर्गों ने बहुत
बारहा बज़्म-ए-ख़ुद-आराई सजाई हुई है
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सहरा में बसे सब दीवाने शहरों में भी महशर है बरपा
अल्लाह तिरी इस ख़िल्क़त से बाक़ी न रहा वीराना तक
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कब से माँग रहे हैं तुम से
साग़र से मीना से ख़ुम से
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दिल लगता है बाहर से जो बोसीदा मकाँ सा
दाख़िल तो कभी हो के ये क़स्र-ए-अदनी देख
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मिरी ग़ैरत-ए-हमा-गीर ने मुझे तेरे दर से उठा दिया
कुछ अना का ज़ोर जो कम हुआ तो ख़बर हुई तू ख़ुदा सा है
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फ़ख़्र ज़ेबा है कि मुद्दत पे कहीं जा के मिरी
अब तलबगार ख़ुदा की ये ख़ुदाई हुई है
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कैसी हैं आज़माइशें कैसा ये इम्तिहान है
मेरे जुनूँ के वास्ते हिज्र की एक रात बस
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पयम्बरों की ज़बानी कही सुनी हम ने
वो कह रहा था कि मेरे भी इंतिख़ाब में आ
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