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समकालिक पाकिस्तानी शायरों में शामिल

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अफ़ज़ाल नवेद के शेर

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अय्याम के ग़ुबार से निकला तो देर तक

मैं रास्तों को धूल बना देखता रहा

सहर की गूँज से आवाज़ा-ए-जमाल हुआ

सो जागता रहा अतराफ़ को जगाए हुए

रहती है शब-ओ-रोज़ में बारिश सी तिरी याद

ख़्वाबों में उतर जाती हैं घनघोर सी आँखें

मैं ने बचपन की ख़ुशबू-ए-नाज़ुक

एक तितली के संग उड़ाई थी

ख़ाली हुआ गिलास नशा सर में गया

दरिया उतर गया तो समुंदर में गया

दरवाज़े थे कुछ और भी दरवाज़े के पीछे

बरसों पे गई बात महीनों से निकल कर

क्या जाने किस का हाथ मिरे हाथ गया

जिस की गिरफ़्त चाहिए थी शल मिला मुझे

किसी को रश्क आए क्यूँ क़िस्मत पर हमारी अब

उजड़ आए हैं हर जानिब से बसना रह गया बाक़ी

पसंद आते नहीं सीधे-साधे लोग उसे

वो अपने माथे पे बिल डालने पे रहता है

ऐसे कुछ दिन भी थे जो हम से गुज़ारे गए

वापसी के किसी सामान में रख छोड़े हैं

जंग से जंगल बना जंगल से मैं निकला नहीं

हो गया ओझल मगर ओझल से मैं निकला नहीं

सो जाती है बस्ती तो मकाँ पिछली गली में

तन्हा खड़ा रहता है मकीनों से निकल कर

कि जैसे ख़ुद से मुलाक़ात हो नहीं पाती

जहाँ से उट्ठा हुआ है ख़मीर खींचता हूँ

झलक थी या कोई ख़ुशबू-ए-ख़द्द-ओ-ख़ाल थी वो

चली गई तो मिरे आस पास रहने लगी

कुछ मज़ाहिर हैं जो नगर में हमें

दूसरा ही नगर दिखाते हैं

यकजाई का तिलिस्म रहा तारी टूट कर

वो सामने से हट के बराबर में गया

रख लिए रौज़न-ए-ज़िंदाँ पे परिंदे सारे

जो वाँ रखने थे दीवान में रख छोड़े हैं

हवस के नाग ने दिन रात रक्खा अपने चंगुल में

बहुत खेला हमारे तन से डसना रह गया बाक़ी

सुबू उठाऊँ तो पीने के बीच खुलती है

कोई गली मेरे सीने के बीच खुलती है

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