अफ़ज़ाल नवेद के शेर
अय्याम के ग़ुबार से निकला तो देर तक
मैं रास्तों को धूल बना देखता रहा
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रहती है शब-ओ-रोज़ में बारिश सी तिरी याद
ख़्वाबों में उतर जाती हैं घनघोर सी आँखें
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सहर की गूँज से आवाज़ा-ए-जमाल हुआ
सो जागता रहा अतराफ़ को जगाए हुए
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मैं ने बचपन की ख़ुशबू-ए-नाज़ुक
एक तितली के संग उड़ाई थी
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ख़ाली हुआ गिलास नशा सर में आ गया
दरिया उतर गया तो समुंदर में आ गया
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दरवाज़े थे कुछ और भी दरवाज़े के पीछे
बरसों पे गई बात महीनों से निकल कर
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क्या जाने किस का हाथ मिरे हाथ आ गया
जिस की गिरफ़्त चाहिए थी शल मिला मुझे
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किसी को रश्क आए क्यूँ न क़िस्मत पर हमारी अब
उजड़ आए हैं हर जानिब से बसना रह गया बाक़ी
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पसंद आते नहीं सीधे-साधे लोग उसे
वो अपने माथे पे बिल डालने पे रहता है
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ऐसे कुछ दिन भी थे जो हम से गुज़ारे न गए
वापसी के किसी सामान में रख छोड़े हैं
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जंग से जंगल बना जंगल से मैं निकला नहीं
हो गया ओझल मगर ओझल से मैं निकला नहीं
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सो जाती है बस्ती तो मकाँ पिछली गली में
तन्हा खड़ा रहता है मकीनों से निकल कर
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झलक थी या कोई ख़ुशबू-ए-ख़द्द-ओ-ख़ाल थी वो
चली गई तो मिरे आस पास रहने लगी
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कि जैसे ख़ुद से मुलाक़ात हो नहीं पाती
जहाँ से उट्ठा हुआ है ख़मीर खींचता हूँ
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हवस के नाग ने दिन रात रक्खा अपने चंगुल में
बहुत खेला हमारे तन से डसना रह गया बाक़ी
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कुछ मज़ाहिर हैं जो नगर में हमें
दूसरा ही नगर दिखाते हैं
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यकजाई का तिलिस्म रहा तारी टूट कर
वो सामने से हट के बराबर में आ गया
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रख लिए रौज़न-ए-ज़िंदाँ पे परिंदे सारे
जो न वाँ रखने थे दीवान में रख छोड़े हैं
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सुबू उठाऊँ तो पीने के बीच खुलती है
कोई गली मेरे सीने के बीच खुलती है
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