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अहमद अशफ़ाक़

1969 | क़तर

अहमद अशफ़ाक़ के शेर

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चीख़ उठता है दफ़अतन किरदार

जब कोई शख़्स बद-गुमाँ हो जाए

बहुत बईद था मसअलों का हल होना

अना के पाँव से ज़ंजीर हम हटा सके

अजब ठहराव पैदा हो रहा है रोज़ शब में

मिरी वहशत कोई ताज़ा अज़िय्यत चाहती है

बिकता रहता सर-ए-बाज़ार कई क़िस्तों में

शुक्र है मेरे ख़ुदा ने मुझे शोहरत नहीं दी

फ़ासले ये सिमट नहीं सकते

अब परायों में कर शुमार मुझे

मेरी कम-गोई पे जो तंज़ किया करते हैं

मेरी कम-गोई के अस्बाब से ना-वाक़िफ़ हैं

ये अलग बात कि तज्दीद-ए-तअल्लुक़ हुआ

पर उसे भूलना चाहूँ तो ज़माने लग जाएँ

तर्क-ए-उल्फ़त के ब'अद भी 'अश्फ़ाक़'

तेरा रहता है इंतिज़ार मुझे

लगता है कि इस दिल में कोई क़ैद है 'अश्फ़ाक़'

रोने की सदा आती है यादों के खंडर से

किसी की शख़्सियत मजरूह कर दी

ज़माने भर में शोहरत हो रही है

अब किसी ख़्वाब की ताबीर नहीं चाहता मैं

कोई सूरत पस-ए-तस्वीर नहीं चाहता मैं

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