अहमद फ़क़ीह के शेर
वो जाता रहा और मैं कुछ बोल न पाया
चिड़ियों ने मगर शोर सा दीवार पे खींचा
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आज मुझे अपनी आँखों से उस के क़ुर्ब की ख़ुशबू आई
मेरी नज़र से उस ने शायद अपने-आप को देखा होगा
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अहल-ए-ख़िरद इसे न समझ पाएँगे 'फ़क़ीह'
कुछ मसअले हैं मावरा फ़तह ओ शिकस्त से
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यूँ दर्द ने उम्मीद के लड़ से मुझे बाँधा
दरियाओं को जिस तरह किनारा करे कोई
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