अहमद फ़रीद के शेर
ज़िंदगी! तुझ सा मुनाफ़िक़ भी कोई क्या होगा
तेरा शहकार हूँ और तेरा ही मारा हुआ हूँ
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ज़ख़्म गिनता हूँ शब-ए-हिज्र में और सोचता हूँ
मैं तो अपना भी न था कैसे तुम्हारा हुआ हूँ
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सामने फिर मिरे अपने हैं सो मैं जानता हूँ
जीत भी जाऊँ तो ये जंग मैं हारा हुआ हूँ
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अपना साया तो मैं दरिया में बहा आया था
कौन फिर भाग रहा है मिरे पीछे पीछे
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सब पे खुलने की हमें ही आरज़ू शायद न थी
एक दो होंगे कि हम जिन पर फ़क़ीराना खुले
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