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Ahmad Sagheer Siddiqui's Photo'

अहमद सग़ीर सिद्दीक़ी

1938 | कराची, पाकिस्तान

अहमद सग़ीर सिद्दीक़ी के शेर

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ज़ख़्म इतने हैं बदन पर कि कहीं दर्द नहीं

हम भी पथराव में पत्थर के हुए जाते हैं

ये क्या कम है अमामा बाँध कर निकले नहीं हम

अब इस से भी सिवा ईमान-दारी कौन करता

कब से मैं सफ़र में हूँ मगर ये नहीं मा'लूम

आने में लगा हूँ कि मैं जाने में लगा हूँ

सुनता है यहाँ कौन समझता है यहाँ कौन

ये शग़्ल-ए-सुख़न वक़्त-गुज़ारी के लिए है

थे यहाँ सारे अमल रद्द-ए-अमल के मुहताज

ज़िंदगी भी हमें दरकार थी मरने के लिए

ये देखो कि मिरे ज़ख़्म बहुत कारी हैं

ये बताओ कि मिरा दुश्मन-ए-जाँ कैसा है

कहाँ मैं और कहाँ गोशा-नशीनी का ये एलान

ये सारा सिलसिला मशहूर होने के लिए था

कोई तस्वीर बना ले कि तुझे याद रहें

तेज़ चलती है हवा रंग उड़े जाते हैं

पर्दा जो उठा दिया गया है

क्या था कि छुपा दिया गया है

किसी सूरत ये नुक्ता-चीनियाँ कुछ रंग तो लाईं

चलो यूँ ही सही अब नाम तो मशहूर है मेरा

चाहे हैं तमाशा मिरे अंदर कई मौसम

लाओ कोई सहरा मिरी वहशत के बराबर

सारी दुनिया से अलग वहशत-ए-दिल है अपनी

ये कि लगती है घर की बयाबाँ वाली

इस इश्क़ में पूछो हाल-ए-दिल-ए-दरीदा

तुम ने सुना तो होगा वो शेर 'मुसहफ़ी' का

खोलीं वो दर किसी ने भी खोला हो जिसे

कोई जिधर जाए उधर जाना चाहिए

आना ज़रा तफ़रीह रहेगी

इक महफ़िल-ए-सदमात करेंगे

कभी बदले दिल-ए-बा-सफ़ा के तौर-तरीक़

अदू मिला तो उसे भी सलाम करते रहे

चराग़ उन पे जले थे बहुत हवा के ख़िलाफ़

बुझे बुझे हैं तभी आज बाम-ओ-दर मेरे

उसी ख़ातिर हटा ली है मसाइल से तवज्जोह

उन्हें थोड़ा सा मैं गम्भीर करना चाहता हूँ

गर्द की तरह सर-ए-राहगुज़र बैठे हैं

इन दिनों और ही अंदाज़-ए-सफ़र है अपना

जी-भर के सितारे जगमगाएँ

महताब बुझा दिया गया है

तख़्लीक़ ख़ुद किया था कल अपने में एक घर

अब घर से ख़ल्क़ चंद मकीं कर रहे हैं हम

ये क्या कि आशिक़ी में भी फ़िक्र-ए-ज़ियाँ रहे

दामन का चाक ता-ब-जिगर जाना चाहिए

हम कि इक उम्र रहे इश्वा-ए-दुनिया के असीर

मुद्दतों बा'द ये कम-ज़ात समझ में आई

इश्क़ इक मशग़ला-ए-जाँ भी तो हो सकता है

क्या ज़रूरी है कि आज़ार किया जाए उसे

कुछ देर में ये दिल किसी गिनती में होगा

बेताब बहुत राय-शुमारी के लिए है

ख़ुद अपनी ज़ात से इक मुक़तदी निकालता हूँ

मैं अपना शौक़-ए-इमामत यूँही निकालता हूँ

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