ऐन ताबिश के शेर
है एक ही लम्हा जो कहीं वस्ल कहीं हिज्र
तकलीफ़ किसी के लिए आराम किसी का
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जहाँ न अपने अज़ीज़ों की दीद होती है
ज़मीन-ए-हिज्र पे भी कोई ईद होती है
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जी लगा रक्खा है यूँ ताबीर के औहाम से
ज़िंदगी क्या है मियाँ बस एक घर ख़्वाबों का है
बे-हुनर देख न सकते थे मगर देखने आए
देख सकते थे मगर अहल-ए-हुनर देख न पाए
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एक बस्ती थी हुई वक़्त के अंदोह में गुम
चाहने वाले बहुत अपने पुराने थे उधर
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एक ख़ुश्बू थी जो मल्बूस पे ताबिंदा थी
एक मौसम था मिरे सर पे जो तूफ़ानी था
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इक ज़रा चैन भी लेते नहीं 'ताबिश'-साहब
मुल्क-ए-ग़म से नए फ़रमान निकल आते हैं
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आज भी उस के मिरे बीच है दुनिया हाइल
आज भी उस के मिरे बीच की मुश्किल है वही
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इसी क़दर है हयात ओ अजल के बीच का फ़र्क़
ये एक धूप का दरिया वो इक किनारा-ए-शाम
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रोज़ इक मर्ग का आलम भी गुज़रता है यहाँ
रोज़ जीने के भी सामान निकल आते हैं
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तू जो इस दुनिया की ख़ातिर अपना-आप गँवाता है
ऐ दिल-ए-मन ऐ मेरे मुसाफ़िर काम है ये नादानों का
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मैं अपना कार-ए-वफ़ा आज़माऊँगा फिर भी
कहाँ मैं तेरे सितम याद करने वाला हूँ
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हर ऐसे-वैसे से क़ुफ़्ल-ए-क़फ़स नहीं खुलता
इस इम्तिहाँ के लिए कुछ हक़ीर होते हैं
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मैं उस घड़ी अपने आप का सामना भी करने से भागता हूँ
वो ज़ीना ज़ीना उतरने वाली शबीह जब मुझ में जागती है
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