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Akbar Ali Khan Arshi Zadah's Photo'

अकबर अली खान अर्शी जादह

1939 - 1997 | रामपुर, भारत

शायर और शोधकर्ता, ग़ालिब के दीवान और उनके पत्रों के हवाले से कई शोधपूर्ण कार्य किये

शायर और शोधकर्ता, ग़ालिब के दीवान और उनके पत्रों के हवाले से कई शोधपूर्ण कार्य किये

अकबर अली खान अर्शी जादह के शेर

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मेरे तसव्वुर ने बख़्शी है तन्हाई को भी इक महफ़िल

तू महफ़िल महफ़िल तन्हा हो ये भी तो हो सकता है

लूटा जो उस ने मुझ को तो आबाद भी किया

इक शख़्स रहज़नी में भी रहबर लगा मुझे

मैं तुझ को भूल पाऊँ यही सज़ा है मिरी

मैं अपने-आप से लेता हूँ इंतिक़ाम अपना

वही मायूसी का आलम वही नौमीदी का रंग

ज़िंदगी भी किसी मुफ़्लिस की दुआ हो जैसे

अजीब उस से तअ'ल्लुक़ है क्या कहा जाए

कुछ ऐसी सुल्ह नहीं है कुछ ऐसी जंग नहीं

कभी ख़ुशबू कभी साया कभी पैकर बन कर

सभी हिज्रों में विसालों में मिरे पास रहो

हर्फ़-ए-दुश्नाम से यूँ उस ने नवाज़ा हम को

ये मलामत ही मोहब्बत का सिला हो जैसे

वो एक लम्हा मुझे क्यूँ सता रहा है कि जो

नहीं के बा'द मगर उस की हाँ से पहले था

ये पड़ी हैं सदियों से किस लिए तिरे मेरे बीच जुदाइयाँ

कभी अपने घर तू मुझे बुला कभी रास्ते मिरे घर के देख

याद बन के पहलू में मौसमों के बिस्तर पर

करवटें बदलती हैं मेहरबानियाँ सारी

वही गुमाँ है जो उस मेहरबाँ से पहले था

वहीं से फिर ये सफ़र है जहाँ से पहले था

धनक की तरह निखरता है शब को ख़्वाबों में

वही जो दिन को मिरी चश्म-ए-तर में रहता है

ये इक सवाल है शिकवा नहीं गिला भी नहीं

मिरे ख़ुदा तिरा लुत्फ़-ओ-अता है किस के लिए

ग़म-ए-अय्याम पे यूँ ख़ुश हैं तिरे दीवाने

ग़म-ए-अय्याम भी इक तेरी अदा हो जैसे

इसी तलाश में पहुँचा हूँ इश्क़ तक तेरे

कि इस हवाले से पा जाऊँ मैं दवाम अपना

ज़ब्त-ए-जुनूँ से अंदाज़ों पर दर तो बंद नहीं होते

तू मुझ से बढ़ कर रुस्वा हो ये भी तो हो सकता है

लाओ इक लम्हे को अपने-आप में डूब के देख आऊँ

ख़ुद मुझ में ही मेरा ख़ुदा हो ये भी तो हो सकता है

जब रही हैं बहारें लिए पयाम-ए-जुनूँ

ये पैरहन को मिरे हाजत-ए-रफ़ू क्या थी

तुम्हें नहीं हो अगर आज गोश-बर-आवाज़

ये मेरी फ़िक्र ये मेरी नवा है किस के लिए

सर-ए-ख़ार से सर-ए-संग से जो है मेरा जिस्म लहू लहू

कभी तू भी तो मिरे संग-ए-मील कभी रंग मेरे सफ़र के देख

जो बार-ए-दोश रहा सर वो कब था शोरीदा

बहा जिस से लहू वो रग-ए-गुलू क्या थी

सुराही-ए-मय-ए-नाब-ओ-सफीना-हा-ए-ग़ज़ल

ये हर्फ़-ए-हुस्न-ए-मुक़द्दर लिखा है किस के लिए

वो सुन रहा है मिरी बे-ज़बानियों की ज़बाँ

जो हर्फ़-ओ-सौत-ओ-सदा-ओ-ज़बाँ से पहले था

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