अख़्तर अंसारी अकबराबादी के शेर
चुप रहो तो पूछता है ख़ैर है
लो ख़मोशी भी शिकायत हो गई
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क्या करिश्मा है मिरे जज़्बा-ए-आज़ादी का
थी जो दीवार कभी अब है वो दर की सूरत
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कुछ अँधेरे हैं अभी राह में हाइल 'अख़्तर'
अपनी मंज़िल पे नज़र आएगा इंसाँ इक रोज़
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ज़ुल्म सहते रहे शुक्र करते रहे आई लब तक न ये दास्ताँ आज तक
मुझ को हैरत रही अंजुमन में तिरी क्यूँ हैं ख़ामोश अहल-ए-ज़बाँ आज तक
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दुश्मनी को बुरा न कह ऐ दोस्त
देख क्या दोस्ती है ग़ौर से देख
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अजीब भूल-भुलय्याँ है शाहराह-ए-हयात
भटकने वाले यहाँ जुस्तुजू की बात न कर
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सहारा दे नहीं सकते शिकस्ता पाँव को
हटाओ राह-ए-मोहब्बत से रहनुमाओं को
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हो कोई मौज-ए-तूफ़ाँ या हवा-ए-तुंद का झोंका
जो पहुँचा दे लब-ए-साहिल उसी को नाख़ुदा समझो
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इक हुस्न-ए-मुकम्मल है तो इक इश्क़-सरापा
होश्यार सा इक शख़्स है दीवाना सा इक शख़्स
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क्यूँ शिकन पड़ गई है अबरू पर
मैं तो कहता हूँ एक बात की बात
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ग़म-ए-दिल का असर हर बज़्म में है
सब अफ़्साने उस अफ़्साने से निकले
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बंदगी तेरी ख़ुदाई से बहुत है आगे
नक़्श-ए-सज्दा है तिरे नक़्श-ए-क़दम से पहले
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गुलों का ज़िक्र बहारों में कर चुके 'अख़्तर'
अब आओ होश में बर्क़-ओ-शरर की बात करो
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ये रंग-ओ-कैफ़ कहाँ था शबाब से पहले
नज़र कुछ और थी मौज-ए-शराब से पहले
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अभी बहार ने सीखी कहाँ है दिल-जूई
हज़ार दाग़ अभी क़ल्ब-ए-लाला-ज़ार में हैं
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फ़ित्नों की अर्ज़ानी से अब एक इक तार आलूदा है
हम देखें किस किस के दामन एक भी दामन पाक नहीं
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क्यूँ करो 'अख़्तर' की बातें वो तो इक दीवाना है
तुम तो यारो अपनी अपनी दास्ताँ कहते रहो
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हम जो लुटे उस शहर में जा कर दुख लोगों को क्यूँ पहुँचा
अपनी नज़र थी अपना दिल था कोई पराया माल न था
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राह पर आ ही गए आज भटकने वाले
राहबर देख वो मंज़िल का निशाँ है कि नहीं
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बचा बचा के गुज़रना है दामन-ए-हस्ती
शरीक-ए-ख़ार भी कुछ जश्न-ए-नौ-बहार में हैं
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यही हैं यादगार-ए-ग़ुंचा-ओ-गुल इस ज़माने में
इन्हीं सूखे हुए काँटों से ज़िक्र-ए-गुल्सिताँ लिखिए
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गुल खिलाए न कहीं फ़ित्ना-ए-दौराँ कुछ और
आज-कल दौर-ए-मय-ओ-जाम से जी डरता है
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