अख़्तर हुसैन रायपुरी की कहानियाँ
जिस्म की पुकार
असलम की आँख देर से खुल चुकी थी लेकिन वो दम साधे हुए बिस्तर पर पड़ा रहा। कमरे के अंदर भी उतना अंधेरा न था जितना कि बाहर। क्यों कि दुनिया कुहासे के काफ़ुरी कफ़न में लिपटी हुई थी ताहम इक्का दुक्का कव्वे की चीख़ पुकार और बर्फ़ पर रेंगती हुई गाड़ियों की मसोसी
मुझे जाने दो
"मुझे जाने दो" उसने कहा और जब तक मैं उसे रोकूँ वो हाथ छुड़ा कर जा चुकी थी। अँधेरे में उसकी आँखों की एक झपक और दहलीज़ पर पाँव के बिछुए की एक झनक सुनाई दी। वो चली गई और मैं कोठड़ी में अकेला रह गया। मैं वहाँ जाना न चाहता था। मैं अक्सर उस मकान के आगे
ज़बान-ए-बे-ज़बानी
मैं बरगद का एक उम्र-रसीदा दरख़्त हूँ, ग़ैर-फ़ानी और अबदी! न जाने कितनी मुद्दत से मैं तन-ए-तन्हा और ख़ामोश खड़ा हूँ। बर-क़रार न बे-क़रार! बे-ज़बान और नग़्मा ज़न! याद नहीं कितनी मर्तबा कड़कड़ाती सर्दियों में अपनी बे-बर्ग शाख़ों से कोहासा की चादर हटा