अख़्तर रज़ा सलीमी के शेर
इक आग हमारी मुंतज़िर है
इक आग से हम निकल रहे हैं
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
- डाउनलोड
अब ज़मीं भी जगह नहीं देती
हम कभी आसमाँ पे रहते थे
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
- डाउनलोड
पहले तराशा काँच से उस ने मिरा वजूद
फिर शहर भर के हाथ में पत्थर थमा दिए
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
- डाउनलोड
गुज़र रहा हूँ किसी जन्नत-ए-जमाल से मैं
गुनाह करता हुआ नेकियाँ कमाता हुआ
-
टैग : गुनाह
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
- डाउनलोड
ख़्वाब गलियों में फिर रहे थे और
लोग अपने घरों में सोए थे
-
टैग : ख़्वाब
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
- डाउनलोड
तुझे ख़बर नहीं इस बात की अभी शायद
कि तेरा हो तो गया हूँ मगर मैं हूँ उस का
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
- डाउनलोड
आए अदम से एक झलक देखने तिरी
रक्खा ही क्या था वर्ना जहान-ए-ख़राब में
-
शेयर कीजिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
- डाउनलोड
हम आए रोज़ नया ख़्वाब देखते हैं मगर
ये लोग वो नहीं जो ख़्वाब से बहल जाएँ
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
- डाउनलोड
दिल ओ निगाह पे तारी रहे फ़ुसूँ उस का
तुम्हारा हो के भी मुमकिन है मैं रहूँ उस का
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
- डाउनलोड
सुना गया है यहाँ शहर बस रहा था कोई
कहा गया है यहाँ पर मकान होते थे
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
- डाउनलोड
यहीं कहीं पे कोई शहर बस रहा था अभी
तलाश कीजिए इस का अगर निशाँ कोई है
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
- डाउनलोड
तुम्हारे होने का शायद सुराग़ पाने लगे
कनार-ए-चश्म कई ख़्वाब सर उठाने लगे
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
- डाउनलोड
जिस्मों से निकल रहे हैं साए
और रौशनी को निगल रहे हैं
-
शेयर कीजिए
- ग़ज़ल देखिए
- सुझाव
- प्रतिक्रिया
- डाउनलोड