अली असर बांदवी
ग़ज़ल 9
अशआर 10
उस बे-ख़बर की नींद का 'आलम न पूछिए
तकिया कहीं है ज़ुल्फ़ कहीं और कहीं बदन
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'इश्क़ में कोई भी सरहद हमें मंज़ूर नहीं
'इश्क़ सरहद के तो उस पार भी हो सकता
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ख़्वाब के जैसा न पाया ख़्वाब की ता'बीर से
दर्द वहशत हिज्र सहरा ही मिला तक़दीर से
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जिन के दामन में मेरे ख़ून के छींटे थे 'असर'
अब वो शफ़्फ़ाफ़ लिबासों में नज़र आते हैं
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हिज्र का मारा हूँ टेबल पर यही सब पाओगे
अध-लिखे ख़त बिखरा एल्बम और ख़ाली बोतलें
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