अमर सिंह फ़िगार के शेर
भीग जाने पर भी जो बुझता न था
आज वो शो'ला धुआँ होने को है
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शायद निकल ही आए कोई चारागर 'फ़िगार'
इक बार और देख सदा कर के शहर में
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जोश-ए-तकमील-ए-तमन्ना है ख़ुदा ख़ैर करे
ख़ाक होने का अंदेशा है ख़ुदा ख़ैर करे
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भूले से आ गया हूँ फ़रिश्तों के देस में
किस से पता करूँ कि यहाँ फ़र्द कौन है
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हर ख़ुशी दिल से क्यूँ लगा बैठें
किस में ग़म हो पता नहीं होता
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तू ये न पूछ मिरे गाँव में हैं घर कितने
ये पूछ कौन से घर में अज़ाब कितने हैं
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फूल तो क्या ख़ार भी मंज़ूर हैं
बे-रुख़ी से यूँ मगर फेंको नहीं
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मचलती शोख़ मौजों को मैं अपने नाम क्यूँ लिक्खूँ
कि आख़िर ख़ुश्क होगा मौसम-ए-बरसात का दरिया
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