अमीर रज़ा मज़हरी
ग़ज़ल 15
अशआर 7
हम बने थे तबाह होने को
आप का इश्क़ तो बहाना था
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तुम किसी के भी हो नहीं सकते
तुम को अपना बना के देख लिया
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हम को बचपन ही से इक शौक़ था बर्बादी से
नाम लिख लिख के मिटाते थे ज़मीं पर अपना
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हम हैं उन से वो ग़ैर से मायूस
क्या मोहब्बत किसी को रास नहीं
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क्या तअज्जुब है जो यारों ने रिफ़ाक़त छोड़ी
बैठता कौन है गिरती हुई दीवार के पास
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