अम्न लख़नवी
ग़ज़ल 5
नज़्म 1
अशआर 7
ज़िंदगी इक सवाल है जिस का जवाब मौत है
मौत भी इक सवाल है जिस का जवाब कुछ नहीं
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कहानी अपनी अपनी अहल-ए-महफ़िल जब सुनाते हैं
मुझे भी याद इक भूला हुआ अफ़्साना आता है
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ज़बान ओ दहन से जो खुलते नहीं हैं
वो खुल जाते हैं राज़ अक्सर नज़र से
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मुकम्मल दास्ताँ का इख़्तिसार इतना ही काफ़ी है
सुलाया शोर-ए-दुनिया ने जगाया शोर-ए-महशर ने
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तुम्हारी बज़्म भी क्या बज़्म है आदाब हैं कैसे
वही मक़्बूल होता है जो गुस्ताख़ाना आता है
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