अंजुम ख़लीक़ के शेर
कैसा फ़िराक़ कैसी जुदाई कहाँ का हिज्र
वो जाएगा अगर तो ख़यालों में आएगा
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इंसान की निय्यत का भरोसा नहीं कोई
मिलते हो तो इस बात को इम्कान में रखना
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कहो क्या मेहरबाँ ना-मेहरबाँ तक़दीर होती है
कहा माँ की दुआओं में बड़ी तासीर होती है
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ज़मीं की गोद में इतना सुकून था 'अंजुम'
कि जो गया वो सफ़र की थकान भूल गया
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सो मेरी प्यास का दोनों तरफ़ इलाज नहीं
उधर है एक समुंदर इधर है एक सराब
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क्या जानें सफ़र ख़ैर से गुज़रे कि न गुज़रे
तुम घर का पता भी मिरे सामान में रखना
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बीते हुए लम्हात को पहचान में रखना
मुरझाए हुए फूल भी गुल-दान में रखना
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अल्लाह के घर देर है अंधेर नहीं है
तू यास के मौसम में भी उम्मीद का फ़न सीख
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ख़ुद को अज़िय्यतें न दे मुझ को अज़िय्यतें न दे
ख़ुद पे भी इख़्तियार रख मुझ पे भी ए'तिबार कर
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हम ऐसे लोग बहुत ख़ुश-गुमान होते हैं
ये दिल ज़रूर तिरा ए'तिबार कर लेगा
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मैं अब तो शहर में इस बात से पहचाना जाता हूँ
तुम्हारा ज़िक्र करना और करते ही चले जाना
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इक ग़ज़ल लिक्खी तो ग़म कोई पुराना जागा
फिर उसी ग़म के सबब एक ग़ज़ल और कही
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ज़बाँ-बंदी के मौसम में गली-कूचों की मत पूछो
परिंदों के चहकने से शजर आबाद होते हैं
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मिरे जुनूँ को हवस में शुमार कर लेगा
वो मेरे तीर से मुझ को शिकार कर लेगा
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कहो क्या बात करती है कभी सहरा की ख़ामोशी
कहा उस ख़ामुशी में भी तो इक तक़रीर होती है
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मिरी हवस के मुक़ाबिल ये शहर छोटे हैं
ख़ला में जा के नई बस्तियाँ तलाश करूँ
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सरों से ताज बड़े जिस्म से अबाएँ बड़ी
ज़माने हम ने तिरा इंतिख़ाब देख लिया
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सितम तो ये है कि फ़ौज-ए-सितम में भी 'अंजुम'
बस अपने लोग ही देखूँ जिधर निगाह करूँ
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ज़रफ़िशाँ है मिरी ज़रख़ेज़ ज़मीनों का बदन
ज़र्रा ज़र्रा मिरे पंजाब का पारस निकला
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अज़िय्यतों की भी अपनी ही एक लज़्ज़त है
मैं शहर शहर फिरूँ नेकियाँ तलाश करूँ
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तहय्युर है बला का ये परेशानी नहीं जाती
कि तन ढकने पे भी जिस्मों की उर्यानी नहीं जाती
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जिन को कहा न जा सका जिन को सुना नहीं गया
वो भी हैं कुछ हिकायतें उन को भी तू शुमार कर
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ज़रा सी मैं ने तरजीहात की तरतीब बदली थी
कि आपस में उलझ कर रह गए दुनिया ओ दीं मेरे
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बस ऐ निगार-ए-ज़ीस्त यक़ीं आ गया हमें
ये तेरी बे-रुख़ी ये तअम्मुल न जाएगा
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वहशत-ए-हिज्र भी तन्हाई भी मैं भी 'अंजुम'
जब इकट्ठे हुए सब एक ग़ज़ल और कही
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मिरी ता'मीर बेहतर शक्ल में होने को है 'अंजुम'
कि जंगल साफ़ होने से नगर आबाद होते हैं
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नख़्ल-ए-अना में ज़ोर-ए-नुमू किस ग़ज़ब का था
ये पेड़ तो ख़िज़ाँ में भी शादाब रह गया
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हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
हम जैसा मगर ज़ौक़-ए-क़वाफ़ी नहीं रखते
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अगर आता हूँ साहिल पर तो आँधी घेर लेती है
समुंदर में उतरता हूँ तो तुग़्यानी नहीं जाती
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ख़ुमार-ए-क़ुर्बत-ए-मंज़िल था ना-रसी का जवाज़
गली में आ के मैं उस का मकान भूल गया
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ये कौन निकल आया यहाँ सैर-ए-चमन को
शाख़ों से महकते हुए ज़ेवर निकल आए
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ये कौन है कि जिस को उभारे हुए है मौज
वो शख़्स कौन था जो तह-ए-आब रह गया
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फ़िराक़-रुत में भी कुछ लज़्ज़तें विसाल की हैं
ख़याल ही में तिरे ख़ाल-ओ-ख़द उभारा करें
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हाथ आएगा क्या साहिल-ए-लब से हमें 'अंजुम'
जब दिल का समुंदर ही गुहर-बार नहीं है
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उन संग-ज़नों में कोई अपना भी था शायद
जो ढेर से ये क़ीमती पत्थर निकल आए
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ख़ातिर से जो करना पड़ी कज-फ़हम की ताईद
लगता था कि इंकार-कुशी एक हुनर है
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मिरी ख़ातिर से ये इक ज़ख़्म जो मिट्टी ने खाया है
ज़रा कुछ और ठहरो इस के भरते ही चले जाना
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बहुत साबित-क़दम निकलें गए वक़्तों की तहज़ीबें
कि अब उन के हवालों से खंडर आबाद होते हैं
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उसी शरर को जो इक अहद-ए-यास ने बख़्शा
कभी दिया कभी जुगनू कभी सितारा करें
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