अंजुम सिद्दीक़ी के शेर
दिमाग़ उन के तजस्सुस में जिस्म घर में रहा
मैं अपने घर ही में रहते हुए सफ़र में रहा
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इक तबस्सुम हज़ार-हा आँसू
इब्तिदा वो थी इंतिहा है ये
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मिरी तन्हाई का आलम न पूछो
ख़याल-ए-दोस्ताँ है और मैं हूँ
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आरज़ू की ये सज़ा है कि ज़माना है ख़िलाफ़
उन से मिलने की ख़ुदा जाने सज़ा क्या होगी
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हिज्र की लज़्ज़तों का क्या कहना
वो न आएँ मिरी दुआ है ये
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फ़स्ल-ए-गुल आ गई है अहल-ए-जुनूँ
फिर गरेबाँ को तार तार करें
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