अनवर ताबाँ
ग़ज़ल 15
अशआर 19
हर एक शख़्स मिरा शहर में शनासा था
मगर जो ग़ौर से देखा तो मैं अकेला था
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हँसते हँसते निकल पड़े आँसू
रोते रोते कभी हँसी आई
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जी तो ये चाहता है मर जाएँ
ज़िंदगी अब तिरी रज़ा क्या है
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आएगा वो दिन हमारी ज़िंदगी में भी ज़रूर
जो अँधेरों को मिटा कर रौशनी दे जाएगा
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