आरिफ़ अब्दुल मतीन
ग़ज़ल 18
नज़्म 2
अशआर 8
ज़ात का आईना जब देखा तो हैरानी हुई
मैं न था गोया कोई मुझ सा था मेरे रू-ब-रू
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तितलियाँ रंगों का महशर हैं कभी सोचा न था
उन को छूने पर खुला वो राज़ जो खुलता न था!
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तीरा-ओ-तार ख़लाओं में भटकता रहा ज़ेहन
रात सहरा-ए-अना से मैं हिरासाँ गुज़रा
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था ए'तिमाद-ए-हुस्न से तू इस क़दर तही
आईना देखने का तुझे हौसला न था
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वफ़ा निगाह की तालिब है इम्तिहाँ की नहीं
वो मेरी रूह में झाँके न आज़माए मुझे
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