आरिफ़ अब्दुल मतीन के शेर
वफ़ा निगाह की तालिब है इम्तिहाँ की नहीं
वो मेरी रूह में झाँके न आज़माए मुझे
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ज़ात का आईना जब देखा तो हैरानी हुई
मैं न था गोया कोई मुझ सा था मेरे रू-ब-रू
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चाँद मेरे घर में उतरा था कहीं डूबा न था
ऐ मिरे सूरज अभी आना तिरा अच्छा न था
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कभी ख़याल के रिश्तों को भी टटोल के देख
मैं तुझ से दूर सही तुझ से कुछ जुदा भी नहीं
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था ए'तिमाद-ए-हुस्न से तू इस क़दर तही
आईना देखने का तुझे हौसला न था
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हमीं ने रास्तों की ख़ाक छानी
हमीं आए हैं तेरे पास चल के
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तितलियाँ रंगों का महशर हैं कभी सोचा न था
उन को छूने पर खुला वो राज़ जो खुलता न था!
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तीरा-ओ-तार ख़लाओं में भटकता रहा ज़ेहन
रात सहरा-ए-अना से मैं हिरासाँ गुज़रा
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