असद आवान के शेर
हम भी 'ग़ालिब' की तरह कूचा-ए-जानाँ से 'असद'
न निकलते तो किसी रोज़ निकाले जाते
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ख़ुद-बख़ुद छोड़ गए हैं तो चलो ठीक हुआ
इतने अहबाब कहाँ हम से सँभाले जाते
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उम्र-भर माँ की नसीहत पे ज़माने में 'असद'
फ़ातिमा-ज़ेहरा के बच्चों से वफ़ादारी की
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इस मोहब्बत ने हमें जोड़ दिया आपस में
वर्ना हम दोनों का इक जैसा अक़ीदा तो न था
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आज देखा है उसे जाते हुए रस्ते में
आज उस शख़्स की तस्वीर उतारी मैं ने
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जो अपने ज़ो'म में रहते हैं ऐसे लोगों को
नज़र में रखते हैं दिल से उतार देते हैं
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'ग़ालिब' के मर्तबे से ये वाक़िफ़ नहीं 'असद'
ये बद-लिहाज़ नस्ल है अहद-ए-जदीद की
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बच-बच के तेरी राह से चलना तो था मुझे
तू जो बदल गया है बदलना तो था मुझे
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लब पे इक हर्फ़-ए-तमन्ना है गदाई तो नहीं
ये मिरी अपनी कमाई है पराई तो नहीं
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इक नई तर्ज़ का किरदार दिया जाएगा
इस कहानी में मुझे मार दिया जाएगा
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ज़ाला-बारी भी रही धूप भी थी बारिश भी
तेरी यादों के इलाक़े में ये मंज़र देखे
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दोनों ने दोनों हाथों से लूटा हमें 'असद'
पर्दा-नशीं भी थे कई मसनद-नशीं भी थे
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ज़ख़्म सीने पे हुए इतने कि सीने से रहे
हम तिरे हिज्र में जीते हैं तो जीने से रहे
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चुप-चाप अपने यार की दहलीज़ पर मरे
दुनिया कहेगी हम भी किसी चीज़ पर मरे
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कोई तो देखे मिरी बेबसी मोहब्बत में
मैं आप अपनी जहाँ में हँसी उड़ाता फिरूँ
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यूसुफ़ के लिए हैं सर-ए-बाज़ार इकट्ठे
क़िस्मत से हुए आज ख़रीदार इकट्ठे
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ज़ुल्म तो ये है कि अज़बर न रहे ग़ुर्बत में
एक हाफ़िज़ से जवानी की हिफ़ाज़त न हुई
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हम भी 'ग़ालिब' की तरह कूचा-ए-जानाँ से 'असद'
न निकलते तो किसी रोज़ निकाले जाते
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सारे मरते हैं उसी एक परी चेहरे पर
हम भी उन गलियों में बेकार से हो आते हैं
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सिर्फ़ इक तेरी निगाहों का चुनीदा तो न था
मैं सभी का था मुझे तू ने ख़रीदा तो न था
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तिश्नगी है मिरी आँखों में उसे मिलने की
पैकर-ए-यार का भी चाह-ए-ज़क़न खींचता है
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सुबूत आज भी मेरी किताब में है 'असद'
वो एक रुक़आ तिरा तेरे दस्तख़त के साथ
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रास्ता साफ़ नज़र आता है राही तो नहीं
कुछ कहो राह-ए-मोहब्बत में तबाही तो नहीं
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टूटा हुआ वजूद है टूटा हुआ है जिस्म
मेरा तो मह-जबीनों ने लूटा हुआ है जिस्म
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वसवसे डसते रहे इश्क़ में साँपों की तरह
बे-असा राह-ए-ख़तरनाक पे दिन गुज़रे हैं
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तुयूर-ए-हुस्न भी कल तक क़फ़स में होंगे 'असद'
कि हम ने देखे हैं दाने क़रीब जालों के
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मिरी निगाह रहे सिर्फ़ रू-ए-क़ातिल पर
गुलों पे ख़ंजर-ए-बे-आब्दार चलता रहे
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ज़ब्त के शहर से निकला है जो लश्कर ले कर
दश्त-ए-हैरत की कड़ी धूप में जलता जाए
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क़ाफ़िले वालों को खा जाएगी ये सुस्त-रवी
सारबानों को सुबुक-ख़ेज़ करें चलते चलें
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ज़ाकिर-ए-आल-ए-मोहम्मद है तू मिम्बर पे 'असद'
इब्न-ए-मरजाना के जैसा ये लबादा कैसा
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नित-नया तू ने ज़माने में ख़रीदा बदला
तेरे कहने पे कहाँ हम ने अक़ीदा बदला
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गुज़र न जाए ये मौसम बसंत का मौसम
बनफ़शा फूल खिले हर तरफ़ ज़मीं के लिए
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डूब जाए न कहीं ज़ोर-ए-तलातुम में 'असद'
इक नज़र शाह-ए-उमम मेरे सफ़ीने की तरफ़
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हैरत है आज चश्म-ए-ज़माना-शनास में
देखा गया है उस को ग़ज़ल के लिबास में
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पम्बा-दर-गोश समझते हैं कहीं हम को 'असद'
ऊँची आवाज़ में जो शो'ला-फ़िशाँ बोलते हैं
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