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असग़र सलीम

1919

असग़र सलीम

ग़ज़ल 4

 

अशआर 3

जिसे कभी सर-ए-मिंबर कह सका वाइज़

वो बात अहल-ए-जुनूँ ज़ेर-ए-दार कहते हैं

इस एक बात से गुलचीं का दिल धड़कता है

कि हम सबा से हदीस-ए-बहार कहते हैं

ग़ुबार सा है सर-ए-शाख़-सार कहते हैं

चला है क़ाफ़िला-ए-नौ-बहार कहते हैं

 

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