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असग़र वेलोरी

1931 | चेन्नई, भारत

असग़र वेलोरी

ग़ज़ल 7

अशआर 13

तिरे महल में हज़ारों चराग़ जलते हैं

ये मेरा घर है यहाँ दिल के दाग़ जलते हैं

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शिकार अपनी अना का है आज का इंसाँ

जिसे भी देखिए तन्हा दिखाई देता है

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लोग अच्छों को भी किस दिल से बुरा कहते हैं

हम को कहने में बुरों को भी बुरा लगता है

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दुनिया से ख़त्म हो गया इंसान का वजूद

रहना पड़ा है हम को दरिंदों के दरमियाँ

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रौशनी जब से मुझे छोड़ गई

शम्अ रोती है सिरहाने मेरे

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पुस्तकें 10

 

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