अशहर हाशमी के शेर
तिरा ग़ुरूर झुक के जब मिला मिरे वजूद से
न जाने मेरी कमतरी का चेहरा क्यूँ उतर गया
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मेरी दुनिया में समुंदर का कहीं नाम नहीं
फिर घटा फेंकती है मुझ पे ये पत्थर कैसे
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वहीं के पत्थरों से पूछ मेरा हाल-ए-ज़िंदगी
मैं रेज़ा रेज़ा हो के जिस दयार में बिखर गया
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रहगुज़र भी तिरी पहले थी अजनबी
हर गली अब तिरी रहगुज़र हो गई
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उस से मिलने की तलब में जी लिए कुछ और दिन
वो भी ख़ुद बीते दिनों से बर-सर-ए-पैकार थी
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ज़िंदगी करना वो मुश्किल फ़न है 'अशहर' हाशमी
जैसे कि चलना पड़े बिजली के नंगे तार पर
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'अशहर' कहीं क़रीब ही तारीक ग़ार है
जुगनू की रौशनी को वहीं चल के छोड़ दें
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