अशरफ़ जावेद के शेर
फ़लक से रोज़ उतरते हैं रौशनी के ख़ुतूत
मगर न चमके मुक़द्दर ग़रीब-ख़ानों के
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अब तो चलना है किसी और ही रफ़्तार के साथ
जिस्म बिस्तर पे गिराऊँगा चला जाऊँगा
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बसीत-ए-दश्त की हुर्मत को बाम-ओ-दर दे दे
मिरे ख़ुदाया मुझे भी तो एक घर दे दे
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