Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर
Asifud Daula's Photo'

आसिफ़ुद्दौला

1748 - 1797 | लखनऊ, भारत

अवध के नवाब

अवध के नवाब

आसिफ़ुद्दौला का परिचय

उपनाम : 'आसिफ़'

जन्म :फ़ैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश

निधन : 21 Sep 1797 | लखनऊ, उत्तर प्रदेश

संबंधी : मीर सोज़ (गुरु)

अवध के चौथे नवाब आसिफ़ उद्दौला लखनवी सभ्यता व संस्कृति और उर्दू शायरी के उस शैली के संस्थापक थे जिसे बाद में दबिस्तान-ए-लखनऊ के नाम से जाना गया। अवध के पहले तीन नवाब बुरहान-उल-मलिक, सफदरजंग और शुजा उद्दौला अपनी ज़िंदगी में जंगी मुहिमों और सलतनत के स्थायित्व में व्यस्त और दिल्ली हुकूमत के अधीन थे। उनके ज़माने में अवध की राजधानी फ़ैज़ाबाद था और लखनऊ एक मामूली क़स्बा से ज़्यादा कुछ नहीं था। सन् 1775 में शुजा उद्दौला की मौत के बाद आसिफ़ उद्दौला तख़्त नशीन हुए तो उन्होंने अवध को दिल्ली से अलग सियासी, सांस्कृतिक और सभ्यता की पहचान देने के लिए कई उपाय किए। ये और बात है कि दिल्ली का जुआ पूरी तरह उतार फेंकने और अपनी बादशाहत का ऐलान करने का काम उनके जांनशीनों ने किया। आसिफ़ उद्दौला के ज़माने में दिल्ली सियासी और आर्थिक बदहाली का शिकार थी। उन्होंने वहां से तर्क-ए-सुकूनत करते वाले अहल-ए-कमाल का लखनऊ में स्वागत किया बल्कि सफ़र ख़र्च भेज कर उनको लखनऊ बुलाया। उन्होंने समस्त कला विशेषज्ञों को लखनऊ में एकत्र कर लिया और लखनऊ को ऐसा चुम्बक बना दिया कि जिसकी तरफ़ हिन्दोस्तान के ही नहीं ईरान व इराक़ के भी अहल-ए-कमाल खिंचे चले आए। आसिफ़ उद्दौला लखनऊ को वो बनाना चाहते थे जो शाहजहाँ ने दिल्ली को बनाया था।

आसिफ़ उद्दौला का नाम मोहम्मद यहिया मिर्ज़ा ज़मानी था। वो 1748 ई. में पैदा हुए। उनकी शिक्षा-दीक्षा का इंतज़ाम शहज़ादों की तरह किया गया। और उन्होंने उर्दू-फ़ारसी में अच्छी महारत के साथ अन्य कलाओं में भी दक्षता हासिल कर ली। आसिफ़ उद्दौला साहिब-ए-ज़ौक़ थे और शायरी का शौक़ रखते थे। उन्होंने उर्दू के अलावा एक फ़ारसी दीवान भी संकलित किया। पिता के देहांत के बाद उनके सम्बंध अपनी माँ से तनावपूर्ण हो गए थे। उनके पिता शुजा उद्दौला को बक्सर की जंग के बाद एक बड़ी रक़म अंग्रेज़ों को जंग के तावान के रूप में अदा करनी पड़ी थी। उस वक़्त उनकी माँ ने बड़े त्याग का प्रदर्शन करते हुए अपने तन के ज़ेवरात भी शौहर के हवाले कर दिए थे। उनकी इस क़ुर्बानी से शुजा उद्दौला इतने प्रभावित हुए थे कि बाद में उन्होंने ने अपनी तमाम निजी दौलत बीवी की तहवील में दे दी थी। बाप की मौत के बाद जब आसिफ़ उद्दौला ने अपनी विरासत की मांग की तो माँ ने देने से इनकार कर दिया। आसिफ़ उद्दौला की माँ के स्वभाव में अभिमान और हुक्मरानी थी और आसिफ़ उद्दौला किसी के अधीन रहना पसंद नहीं करते थे। इसलिए उन्होंने अपनी राजधानी लखनऊ स्थानांतरित कर दिया। लखनऊ आकर उन्होंने सबसे पहले शहर की तामीर पर तवज्जो की और लखनऊ में दिन-रात नई नई इमारतें खड़ी होने लगीं। निर्माण की रफ़्तार उसी ज़माने में फैले अकाल ने और भी तेज़ कर दी और ये तामीराती काम राहत रसानी का भी एक काम बन गया जिसने हज़ारों लोगों को रोज़गार दिया। बहुत से संभ्रांत अकाल की वजह से मेहनत मज़दूरी पर मजबूर हो गए थे। उनकी पर्दादारी के लिए कुछ इमारतें केवल रात के वक़्त तामीर की जाती थीं। उनके ज़माने में कहावत थी "जिसे न दे मौला, उसको दें आसिफ़ उद्दौला।” उनका उसी ज़माने का शे’र है, “जहां में जहां तक जगह पाइए/ इमारत बनाते चले जाइए।”

जहां तक सलतनत के मामलों का सवाल है सियासी और फ़ौजी सतह पर अंग्रेज़ों ने एक संधि के रूप में उनके हाथ बांध रखे थे। इसके बावजूद उन्होंने कभी अंग्रेज़ों से दब कर या झुक कर बात नहीं की, उनके साथ उनके सम्बंध दोस्ताना थे। वो एक नवाब की तरह उनको और उनकी बेगमात को तोहफ़ा तहाइफ़ से नवाज़ते थे और सलतनत के मामलों में उनसे ख़ुद बात करने के बजाय अपने वज़ीरों को भेजते थे। ईस्ट इंडिया कंपनी की फ़ौज किसी बाहरी आक्रमण के ख़िलाफ़ उनकी सलतनत की सुरक्षा की ज़िम्मेदार थी। इस तरफ़ से मुतमइन हो कर उन्होंने अपनी सारी तवज्जो सलतनत की अलग पहचान निर्माण पर लगा दी। वो अपनी सलतनत को हर तरह से आदर्श बनाना चाहते थे और उनको किसी भी तरह से किसी के प्रभाव में रहना पसंद नहीं था। महल की साज़िशों से बचने और रिआया से ख़ुशगवार ताल्लुक़ात क़ायम करने के मक़सद से उन्होंने कम रुत्बा लोगों को वज़ारतें और ओहदे दिए। ताकि वो उनके एहसान तले दबे रह कर किसी षड्यंत्र या उग्रवाद में शामिल न हों। उनके अहम वज़ीर शिया थे या हिंदू। इस रणनीति का नतीजा ये था कि अवध में मिली-जुली हिंदू-मुस्लिम तहज़ीब ने जड़ें पकड़ीं जो गंगा जमुनी तहज़ीब कहलाती है। रियासत में हिन्दुओं की भारी बहुमत देखते हुए उन्होंने रिआया का दिल जीतने की हर मुम्किन कोशिश की। उनके ज़माने में बड़े पैमाने पर मंदिरों का निर्माण हुआ। अलीगंज का मशहूर हनुमान मंदिर उनके ही ज़माने में राजा जाट मल ने निर्माण कराया। राजा टिकैत राय उनके वित्त मंत्री थे। राजा ने बहुत से तालाब और मंदिर बनवाए। लखनऊ का मशहूर जगननाथ मंदिर भी आसिफ़ उद्दौला के ज़माने में निर्माण हुआ जिसके लिए नवाब ने ज़मीन दी। उस मंदिर की चोटी पर त्रिशूल की जगह हिलाल(चाँद) नस्ब किया जाना उस ज़माने के हिंदू-मुस्लिम भाई चारे का एक बड़ा प्रतीक है। वो हिंदू संतों और फ़क़ीरों की बड़ी इज़्ज़त-ओ-तकरीम करते थे। बाबा कल्याण गिरी हरिद्वार छोड़कर उनके ज़माने में लखनऊ आ गए थे और वहीं उन्होंने कल्याण गिरी मंदिर का निर्माण किया। आसिफ़ उद्दौला के क़रीबी मुसाहिबीन में भिवानी मेहरा थे जो ज़ात के कहार थे और राजा मेहरा कहलाते थे। वो नवाब के ख़ज़ाना के ग़ैर सरकारी मुहाफ़िज़ थे। जब अंग्रेज़ों ने राजा टिकैत राय को हटाने की मांग की तो नवाब ने उनकी जगह एक दूसरे हिंदू झाऊ मल का इंतिख़ाबचुनाव किया। आसिफ़ उद्दौला के दरबार में सूरत सिंह और थापर सिंह को भी उरूज हासिल हुआ। उनकी पालकी बर्दारों मेकू सिंह, शोभा सिंह, भोला सिंह और मोती सिंह को ख़ास दर्जा हासिल था और वो दरबार में हाज़िर हो सकते थे।

आसिफ़ उद्दौला की बदौलत लखनऊ, दिल्ली और आगरा के साथ पुरातत्व और स्थापत्य के शौक़ीन सैलानियों के लिए पर्यटन स्थल बना। उनके द्वारा निर्मित इमारतें, विशेष रूप से रूमी दरवाज़ा और इमाम बाड़ा स्थापत्य कला का अछूता नमूना हैं जिन्हें देखकर आज भी लोग अश अश करते हैं। आसिफ़ उद्दौला ने अपनी उदारता और दरिया-दिली के साथ फ़ैज़ाबाद, दिल्ली और प्राच्य सभ्यता के दूसरे स्रोतों से आब-ए-ज़ि़ंदगानी की नहरों का रुख लखनऊ की तरफ़ मोड़ा। उन ही के ज़माने में मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी सौदा, मीर तक़ी मीर और मीर सोज़ जैसे अहल-ए-कमाल लखनऊ आए। सोज़ को उन्होंने शायरी में अपना उस्ताद बनाया। आसिफ़ उद्दौला ने जिस सांस्कृतिक स्वायत्ता की बुनियाद रखी उस पर नई उर्दू ज़बान की इमारत का निर्माण हुआ। उर्दू शायरी शोक और सहानुभूति के मातमकदा से निकल कर शोख़ी और रंगीनी की तरफ़ माइल हुई जिसने अंततः दबिस्तान-ए-लखनऊ की शक्ल इख़्तियार की। आसिफ़ उद्दौला के ज़माने तक उर्दू शायरी मूल रूप से ग़ज़ल या क़सीदा की शायरी थी। उनके ज़माने में मसनवी और मर्सिया की तरफ़ ख़ास तवज्जो दी गई। मीर हसन की सह्र उल बयान समेत उर्दू की बेहतरीन मसनवियाँ उनके ही ज़माने में लिखी गईं। साथ ही मर्सिया निगारी और मर्सिया-ख़्वानी की ऐसी फ़िज़ा तैयार हुई जिसने मीर अनीस और मिर्ज़ा दबीर जैसे अद्वितीय मर्सिया निगार पैदा किए। आसिफ़ उद्दौला को एक उदार और दरियादिल शासक, कला का क़द्रदान और संरक्षक, अज़ीमुश्शान इमारतों के निर्माता और हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब के अलमबरदार के तौर पर याद किया जाता है।

संबंधित टैग

Recitation

Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

Get Tickets
बोलिए