असलम कोलसरी
ग़ज़ल 20
अशआर 9
क़रीब आ के भी इक शख़्स हो सका न मिरा
यही है मेरी हक़ीक़त यही फ़साना मिरा
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जब मैं उस के गाँव से बाहर निकला था
हर रस्ते ने मेरा रस्ता रोका था
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जाने किस लम्हा-ए-वहशी की तलब है कि फ़लक
देखना चाहे मिरे शहर को जंगल कर के
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शहर में आ कर पढ़ने वाले भूल गए
किस की माँ ने कितना ज़ेवर बेचा था
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हमारी जीत हुई है कि दोनों हारे हैं
बिछड़ के हम ने कई रात दिन गुज़ारे हैं
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