असलम महमूद के शेर
देख आ कर कि तिरे हिज्र में भी ज़िंदा हैं
तुझ से बिछड़े थे तो लगता था कि मर जाएँगे
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हम दिल से रहे तेज़ हवाओं के मुख़ालिफ़
जब थम गया तूफ़ाँ तो क़दम घर से निकाला
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पाँव उस के भी नहीं उठते मिरे घर की तरफ़
और अब के रास्ता बदला हुआ मेरा भी है
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अब ये समझे कि अंधेरा भी ज़रूरी शय है
बुझ गईं आँखें उजालों की फ़रावानी से
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गुज़रते जा रहे हैं क़ाफ़िले तू ही ज़रा रुक जा
ग़ुबार-ए-राह तेरे साथ चलना चाहता हूँ मैं
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यही नहीं कि किसी याद ने मलूल किया
कभी कभी तो यूँही बे-सबब भी रोए हैं
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रात आती है तो ताक़ों में जलाते हैं चराग़
ख़्वाब ज़िंदा हैं सो आँखों में जलाते हैं चराग़
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ख़ता ये थी कि मैं आसानियों का तालिब था
सज़ा ये है कि मिरा तीशा-ए-हुनर भी गया
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बे-रंग न वापस कर इक संग ही दे सर को
कब से तिरा तालिब हूँ कब से तिरे दर पर हूँ
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मैं एक रेत का पैकर था और बिखर भी गया
अजब था ख़्वाब कि मैं ख़्वाब ही में डर भी गया
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तेरे कूचे की हवा पूछे है अब हम से
नाम क्या है क्या नसब है हम कहाँ के हैं
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आ गया कौन ये आज उस के मुक़ाबिल 'असलम'
आईना टूट गया अक्स की ताबानी से
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वो दर्द हूँ कोई चारा नहीं है जिस का कहीं
वो ज़ख़्म हूँ कि है दुश्वार इंदिमाल मिरा
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तेग़-ए-नफ़स को बहुत नाज़ था रफ़्तार पर
हो गई आख़िर मिरे ख़ूँ में नहा कर ख़मोश
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मिरी कहानी रक़म हुई है हवा के औराक़-ए-मुंतशिर पर
मैं ख़ाक के रंग-ए-ग़ैर-फ़ानी को अपनी तस्वीर कर रहा हूँ
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मिरे शौक़-ए-सैर-ओ-सफ़र को अब नए इक जहाँ की नुमूद कर
तिरे बहर ओ बर को तो रख दिया है कभी का मैं ने खँगाल के
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तमाम उम्र जिसे मैं उबूर कर न सका
दरून-ए-ज़ात मिरे बे-कनार सा कुछ है
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कहाँ भटकती फिरेगी अँधेरी गलियों में
हम इक चराग़ सर-ए-कूचा-हवा रख आए
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रुक गया आ के जहाँ क़ाफ़िला-ए-रंग-ओ-नशात
कुछ क़दम आगे ज़रा बढ़ के मकाँ है मेरा
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