अतीक़ असर के शेर
क़रीब से न गुज़र इंतिज़ार बाक़ी रख
क़राबतों का मगर ए'तिबार बाक़ी रख
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मसर्रत और ग़म दोनों की कोई हद ज़रूरी है
किसी भी एक शय का सिलसिला अच्छा नहीं लगता
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चुरा के लाए हैं कुछ लोग लफ़्ज़ के मोती
इन्हें वो बेच रहे हैं दुकाँ दुकाँ हो कर
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उठे जाते हैं दीदा-वर सभी आहिस्ता आहिस्ता
ये दुनिया मो'तबर लोगों से ख़ाली होती जाती है
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वो बात मुझ को तो दुश्नाम सी लगी है 'अतीक़'
तुम्हारा नाम लिखा किस ने बे-वफ़ाओं में
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